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भगवती सूत्र
श. ८ : उ. ६ : सू. २४५-२५० प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है उसे क्या फल मिलता है?
गौतम! उसके एकान्ततः निर्जरा होती है, पाप-कर्म का बंध नहीं होता। २४६. भन्ते! तथारूप श्रमण, माहन को अप्रासुक अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है उसे क्या फल मिलता है ? गौतम! उसे बहुतर निर्जरा होती है, अल्पतर पाप-कर्म का बंध होता है। २४७. भन्ते! तथारूप असंयत, अविरत, अप्रतिहत, अप्रत्याख्यातपापकर्म वाले व्यक्ति को प्रासुक अथवा अप्रासुक एषणीय अथवा अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है-उसे क्या फल मिलता है? गौतम! उसके एकान्ततः पाप-कर्म का बंध होता है, कोई निर्जरा नहीं होती। उपनिमंत्रित-पिण्डादि परिभोग-विधि-पद २४८. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति दो पिण्डों
का उपनिमंत्रण देता है-आयुष्मन् ! एक पिण्ड आप खा लेना और दूसरा पिण्ड स्थविरों को दे देना। वह निग्रंथ उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे। अनुगवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों को देखे वहीं एक पिण्ड उन्हें दे दे। अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई न दे तो उस दूसरे पिण्ड को न स्वयं खाए, न किसी अन्य को दे, एकान्त, अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक स्थण्डिल-भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर
उस पिण्ड का वहां परिष्ठापन कर दे। २४९. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति तीन पिण्डों का उपनिमंत्रण देता है-आयुष्मन् ! एक पिण्ड आप खा लेना और दो पिण्ड स्थविरों को दे देना। वह निग्रंथ उन तीनों पिण्डों को ग्रहण कर ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे। अनुगवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों को देखे वहीं दो पिण्ड उन्हें दे दे। अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई न दे, तो उन दो पिण्डों को न स्वयं खाएं, न किसी अन्य को दे एकान्त, अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक स्थण्डिल-भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उन पिण्डों का वहां परिष्ठापन कर दे। इस प्रकार यावत् कोई गृहपति दस पिण्डों का उपनिमंत्रण देता है जैसे आयुष्मान् ! एक आप खा लेना और नौ स्थविरों को दे देना। शेष पूर्ववत् वक्तव्य है यावत् परिष्ठापन कर दे। २५०. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति दो पात्रों
का उपनिमंत्रण देता है-आयुष्मन् ! एक पात्र का आप परिभोग कर लेना और दूसरा स्थविरों को दे देना। वह निर्ग्रन्थ उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे। अनुगवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों को देखे, वहीं एक पात्र उन्हें दे दे। अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई न दे तो उस दूसरे पात्र का न स्वयं परिभोग करे, न किसी अन्य को दे, एकान्त, अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक स्थण्डिल-भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उस पात्र का वहां परिष्ठापन कर दे। इसी प्रकार यावत् दस पात्रों का। जैसे पात्र की वक्तव्यता कही गई, वैसे ही गोच्छग, रजोहरण, चुल्लपट्टक, कंबल, यष्टि, संस्तारक की
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