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(XXX)
"भगवान् ने कहा-"गौतम! वह उसी जन्म में ही सिद्ध हो जाता है और यदि उस जन्म में न हो तो तीसरे जन्म में अवश्य हो जाता है।"
"जैन साधना-पद्धति का पहला सूत्र है-"मिथ्यात्व-विसर्जन या दर्शन-विशुद्धि । दर्शन की विशुद्धि का हेतु संवेग है, जो नैसर्गिक भी होता है और अधिगमिक भी।"
आगम का नियमित स्वाध्याय करने वाले व्यक्ति को जीवन में वैराग्य-वृत्ति को संपुष्ट करने वाले अनेक सूत्र मिल जाते हैं। उदाहरणार्थ-दसवेआलियं (८/५८-५९) में निर्देश है
विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नाभिनिवेसए।
अणिच्चं तेसिं विनाय, परिणामं पोग्गलाण उ॥ "शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पुद्गलों के परिणमन को अनित्य जानकार ब्रह्मचारी मनोज्ञ विषयों में राग-भाव न करे।"
पोग्गलाण परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा।
विणीयतण्हो विहरे, सीईभूएण अप्पणा।। “इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गलों के परिणमन को, जैसा है वैसा जानकर अपनी आत्मा को उपशांत कर तृष्णा-रहित हो विहार करे।"
आगमों में प्रचुर मात्रा में दृष्टान्तों एवं कथाओं का उपयोग किया गया है, जो रोचक, प्रेरक एवं ज्ञानवर्धक हैं। उदाहरणार्थ-अनासक्ति के विकास की दृष्टि से नायाधम्मकहाआ में आए 'संघाटक' नामक कथानक में भगवान महावीर ने स्वयं जो कथा सुनाई, वह इस प्रकार है
राजगृह नगर में घन सार्थवाह नामक संपन्न सेठ था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। प्रचुर धन आदि के बावजूद भी सन्तान न होने से वे बड़े दुःखी थे। बाद में देवी-देवताओं की मनौती करने के पश्चात् उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। उसका नाम देवदत्त रखा। उसे बड़े प्यार से लालन-पालन करते हुए माता-पिता बहुत आनंद से जीवन बिताने लगे। उन्होंने बच्चे की सेवा के लिए पन्थक नामक दास-पुत्र को नियुक्त किया। बालक बड़ा होने लगा। एक बार माता भद्रा ने बालक देवदत्त को बहमूल्य आभूषणों से सजा-धजा कर पन्थक को सौंपा। पन्थक बालक को अपनी गोद में लेकर घर से बाहर घुमाने के लिए ले गया। वहां एक स्थान में बच्चे देवदत्त को एकान्त में बिठाकर पन्थक स्वयं अन्य बच्चों के साथ खेलने लग गया। उस समय एक विजय नामक तस्कर (चोर) था जो स्वभावतः क्रूर था तथा बच्चों का अपहरण करने में कशल था। बालक देवदत्त को आभूषणों-सहित एकान्त में बैठे हुए देखकर विजय तस्कर ने उसका अपहरण कर लिया तथा नगर से बाहर भग्न-कूप (पुराने उद्यान का भयावह स्थान में स्थित सूखे/कुएं) के पास ले जाकर उसकी हत्या कर उसके सारे १. उत्तरायणाणि, अ.२९, टिप्पण , पृष्ठ ४८७। २. नायाधम्मकहाओ, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन २, पृ. ९२-१०७ के आधार पर संक्षिप्त सार।