________________
श. ५ : उ. ९,१० : सू. २५५-२६०
भगवती सूत्र
हां, भगवन्। आर्यो! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-इस असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्त रातदिन उत्पन्न होते हैं–पूर्ण वक्तव्यता। उस समय से पापित्यीय स्थविर भगवान् श्रमण भगवान् महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में पहचानते हैं। २५६. वे स्थविर भगवान् श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर इस बोले-भन्ते! हम आपके पास चातुर्याम-धर्म से सप्रतिक्रमण पांच महाव्रत-रूप धर्म की उपसंपदा प्राप्त कर विहरण करना चाहते हैं।
देवानुप्रियो! तुम्हें जैसा सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। २५७. वे पार्खापत्यीय स्थविर भगवान चातुर्याम-धर्म से सप्रतिक्रमण पांच-महाव्रत-रूप-धर्म
की उपसम्पदा प्राप्त कर विहरण कर रहे हैं। यावत् चरम उच्छ्वास-निःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिवृत और सब दुःखों से प्रहीण हुए। उनमें से कुछ एक स्थविर देवलोकों में उपपन्न हुए। देवलोक-पद २५८. भन्ते! देवलोक के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! देवलोक के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे भवनवासी, वानमन्तर, ज्यौतिषिक और वैमानिक। भवनवासी के दश प्रकार, वानमन्तर के आठ प्रकार, ज्यौतिषिक के पांच प्रकार
और वैमानिक के दो प्रकार हैं। संग्रहणी गाथा
यह राजगृह क्या है? उद्द्योत और अन्धकार कहां है? समय आदि को कौन जानता है? पार्खापत्यीय स्थविरों की पृच्छा, लोक में होने वाले रात-दिन और देवलोकों का वर्णन इस
उद्देशक में है। २५९. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है।
दसवां उद्देशक
२६०. उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। प्रथम उद्देशक में जो सूर्य की वक्तव्यता है, वह यहां ज्ञातव्य है। उसमें और इसमें इतना विशेष- सूर्य के स्थान पर चन्द्रमा वक्तव्य है।
१९०