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भगवती सूत्र
श. ५ : उ. ९ : सू. २४९-२५५ नैरयिक मनुष्य-लोक के बाहर स्थित हैं, इसलिए उनके विषय में ऐसा प्रज्ञापन नहीं हो सकता, जैसे- समय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं ।
२५०. इसी प्रकार यावत् मनुष्य-लोक के बाहर स्थित पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीवों के विषय ज्ञातव्य है ।
२५१. भन्ते ! मनुष्य-लोक में स्थित मनुष्यों के लिए क्या ऐसा प्रज्ञापन हो सकता है, जैसे—समय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं ।
हां, ऐसा हो सकता है ।
२५२. यह किस अपेक्षा से ?
गौतम ! समय आदि का मान और प्रमाण मनुष्य-लोक में ही होता है, मनुष्य-लोक में ही समय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं। यह इस अपेक्षा से ।
२५३. वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक -देवों के विषय में नैरयिकों की भांति वक्तव्यता । पार्श्वापत्यीय-पद
२५४. उस काल और उस समय में पाश्र्वापत्यीय स्थविर भगवान् जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आते हैं। वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर, न अति निकट स्थित होकर इस प्रकार बोले- भन्ते ! क्या इस असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे ? व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे ? परीत (परिमित) रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे ? व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे ?
हां, आर्यो! इस असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होगें । इसी प्रकार परीत रातदिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे । व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे।
२५५. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - असंख्येयप्रदेशात्मक लोक उत्पन्न हुए हैं यावत् व्यतीत होंगे ?
अनन्त रात-दिन
हे आर्यो! आपके पूर्ववर्ती पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है- अनादि, अनन्त, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्न भाग में पर्यंक के आकार वाला, मध्य में उसकी आकृति श्रेष्ठ व्रज जैसी है और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत, अनादि, अनन्त, परीत, अलोक से परिवृत, निम्न भाग विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, निम्न भाग में पर्यंक आकार वाले, मध्य में श्रेष्ठ वज्र और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में अनन्त जीव-घन उत्पन्न हो-होकर निलीन हो जाते हैं। परीत जीव घन उत्पन्न हो - होकर निलीन हो जाते हैं। वह लोक सद्भूत, उत्पन्न, विगत और परिणत है। अजीव - पुद्गल आदि के विविध परिणामों के द्वारा जिसका लोकन किया जाता है, प्रलोकन किया जाता है, वह लोक है ।
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