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भगवती सूत्र
श. ५ : उ. ६ : सू. १३८-१४७ कटुक, परुष, निष्ठुर, प्रचण्ड, तीव्र दुक्ख, दुर्गम और दुःसह वेदना की उदीरणा करते हैं। आधाकर्म आदि आहार के सम्बन्ध में आराधनादि-पद १३९. आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार जो मानसिक प्रधारणा करता है, वह उस स्थान की
आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त होता है-उसके आराधना नहीं होती। वह उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल-धर्म को प्राप्त होता है उसके
आराधना होती है। १४०. इसी गमक के अनुसार क्रीत-कृत, स्थापित, रचित, कान्तार-भक्त, दुर्भिक्ष-भक्त,
बार्दलिका-भक्त, ग्लान-भक्त, शय्यातर-पिण्ड और राज-पिण्ड ज्ञातव्य है। १४१. आधाकर्म अनवद्य है, ऐसा सोचकर जो स्वयं उसका परिभोग करता है, वह उस स्थान
की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त होता है उसके आराधना नहीं होती। वह उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल-धर्म को प्राप्त होता है उसके
आराधना होती है। १४२. क्रीत-कृत का परिभोग यावत् राज-पिण्ड का परिभोग पूर्व सूत्र (१४०) की भांति
वक्तव्य है। १४३. आधाकर्म अनवद्य है, ऐसा सोचकर जो परस्पर अनुप्रदान करता है, वह उस स्थान की
आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त होता है उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल-धर्म को प्राप्त होता है-उसके
आराधना होती है। १४४. क्रीत-कृत का परस्पर अनुप्रदान यावत् राजपिण्ड का परस्पर अनुप्रदान पूर्व सूत्र (१४३)
की भांति वक्तव्य है। १४५. आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार जो बहुजनों के बीच प्रज्ञापन करता है, वह उस स्थान
की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त होता है उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर कालधर्म को प्राप्त होता है-उसके
आराधना होती है। १४६. क्रीत-कृत का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन यावत् राज-पिण्ड का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन पूर्व सूत्र (१४५) की भांति वक्तव्य है। आचार्य-उपाध्याय की सिद्धि का पद १४७. भन्ते! आचार्य और उपाध्याय अपने विषय (अर्थदान और सूत्रदान) में अग्लान भाव से गण का संग्रह करते हुए और अग्लान भाव से गण का उपग्रह करते हुए कितने भवग्रहणों से सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं? गौतम! कुछ (आचार्य-उपाध्याय) उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं, कुछ दूसरे भव में सिद्ध हो जाते हैं, वे तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते तीसरे भव में वे अवश्य सिद्ध होते हैं।
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