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भगवती सूत्र
श. ५ : उ. ४ : सू. ९६-१०२ ९६. वह 'श्रुत्वा' (सुनकर) क्या है?
छमस्थ पुरुष, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपसिका, स्वयंबुद्ध, स्वयंबुद्ध के श्रावक, स्वयंबुद्ध की श्राविका, स्वयंबुद्ध के उपासक
अथवा स्वयंबुद्ध की उपासिका के पास जानता-देखता है। यह 'श्रुत्वा' है। ९७. वह प्रमाण क्या है?
प्रमाण चार प्रकार का प्रज्ञप्त है-प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम। प्रमाण का विवरण अणुयोगदाराइं की भांति ज्ञातव्य है यावत् गणधर के प्रशिष्यों के लिए सूत्रागम और अर्थागम दोनों न आत्मागम हैं, न अनन्तरागम हैं, किन्तु परम्परागम हैं। ९८. भन्ते! केवली चरम कर्म और चरम निर्जरा को जानता-देखता है? __ हां. जानता-देखता है। ९९. भन्ते! जिस प्रकार केवली चरम कर्म और चरम निर्जरा को जानता देखता है, क्या उसी प्रकार छद्मस्थ भी चरम कर्म और चरम निर्जरा को जानता-देखता है? गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। वह सुन कर अथवा किसी प्रमाण से जानता-देखता है। जिस प्रकार अन्तकर का आलापक है, उसी प्रकार चरम कर्म का भी आलापक अविकल रूप से ज्ञातव्य है। केवली के प्रणीत-मन-वचन-पद १००. भन्ते! क्या केवली प्रणीत मन और वचन को धारण करता है उनका प्रयोग करता है?
हां, धारण करता है। १०१. भन्ते! केवली प्रणीत मन और वचन को धारण करता है, इसे वैमानिक-देव जानतेदेखते हैं?
गौतम! कुछ देव जानते-देखते हैं, कुछ देव नहीं जानते-देखते। १०२. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कुछ देव जानते-देखते हैं, कुछ देव नहीं जानते, नहीं देखते? गौतम! वैमानिक देव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे–मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायिसम्यक्दृष्टि-उपपन्नक। इनमें जो मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक हैं, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे जानते-देखते हैं। यह किस अपेक्षा से? गौतम! अमायि-सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे–अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपन्नक । इनमें जो अनन्तरोपपन्नक हैं, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो परम्परोपपन्नक हैं, वे जानते देखते हैं। यह किस अपेक्षा से? गौतम ! परम्परोपपन्नक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अपर्याप्तक और पर्याप्तक। इनमें जो
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