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________________ श. ५ : उ. ४ : सू. ७६-८२ भगवती सूत्र करता है? योनि से योनि में संहरण करता है? गौतम! गर्भ से गर्भ में संहरण नहीं करता, गर्भ से योनि में संहरण नहीं करता, योनि से योनि में संहरण नहीं करता, किन्तु वह हाथ से स्पर्श कर-कर सुखपूर्वक योनि से गर्भ में संहरण करता है। ७७. भन्ते! शक्र का दूत हरि-नैगमेषी देव स्त्री के गर्भ का नख के अग्रभाग अथवा रोमकूप से संहरण अथवा निर्हरण करने में समर्थ है? हां, समर्थ है। ऐसा करते समय वह गर्भ को किञ्चिद् भी आबाधा अथवा विबाधा उत्पन्न नहीं करता और न उसका छविच्छेद करता। वह इतनी सूक्ष्मता (निपूणता) के साथ उसका संहरण अथवा निर्हरण करता है। अतिमुक्तक-पद ७८. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का अन्तेवासी अतिमुक्त नाम का कुमार श्रमण प्रकृति से भद्र, प्रकृति से उपशान्त था। उसकी प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु (पतले) थे। वह मृदुभाव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था। ७९. किसी समय बहुत तेज वर्षा हो रही थी। उस समय कुमार श्रमण अतिमुक्त कांख में पात्र और रजोहरण लेकर बहिर्भूमि जाने के लिए प्रस्थान करता है। ८०. वह कुमार श्रमण अतिमुक्त बहते हुए जल-प्रवाह को देखता है, देख कर मिट्टी से पाल बांधता है। बांध कर फिर 'यह मेरी नौका, यह मेरी नौका' इस विकल्प के साथ नाविक की भांति अपने नौकामय पात्र को जल में प्रवाहित करता हुआ क्रीड़ा कर रहा है। उसे क्रीड़ा करते हुए स्थविरों ने देखा। वे जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, आ कर इस प्रकर बोलेभन्ते! आपका अन्तेवासी अतिमुक्त नाम का कुमार श्रमण जो है। भन्ते! वह कुमार श्रमण अतिमुक्त कितने जन्म लेकर सिद्ध, प्रशन्त, मुक्त और परिनिवृत्त होगा और सब दुःखों का अन्त करेगा? ८१. आर्यो! श्रमण भगवान् महावीर ने उन स्थविरों से इस प्रकार कहा- आर्यो! मेरा अन्तेवासी अतिमुक्त नामक कुमार श्रमण जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत है वह कुमार श्रमण अतिमुक्त इसी भव में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। आर्यो! इसलिए तुम कुमार श्रमण अतिमुक्त की अवहेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा और अवमानना मत करो। देवानुप्रियो! तुम कुमार श्रमण अतिमुक्त को अग्लान भाव से स्वीकृत करो, अग्लान भाव से आलम्बन दो और अग्लान भाव से विनयपूर्वक भोजन-पानी से उसकी वैयापृत्य करो। कुमार श्रमण अतिमुक्त संसार का अन्त करने वाला है और अन्तिमशरीरी है। ८२. श्रमण भगवान् महावीर द्वारा ऐसा कहे जाने पर वे स्थविर भगवान श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, कुमार श्रमण अतिमुक्त को अग्लान भाव से स्वीकार करते हैं, अग्लान भाव से आलम्बन देते हैं और अग्लान भाव से विनयपूर्वक भोजन-पानी से उसकी वैयापृत्य करते हैं। १६२
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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