________________
(XVII) भी आधुनिक समीक्षात्मक पद्धति से। ३२ आगमों का समीक्षात्मक-सम्पादन-सहित प्रकाशन सन् १९८५ तक संपन्न हुआ।
___ इस संस्करण में संशोधित मूल पाठ के साथ पाद-टिप्पण में पाठान्तरों को भी दे दिया गया है। इसके साथ ही प्रत्येक आगम का संक्षिप्त परिचय, कार्य में प्रयुक्त प्रतियों का परिचय तथा परिशिष्ट में “जाव" की पूर्ति करने वाले पाठों के संकेत उपलब्ध करवा दिए हैं।
सभी ३२ आगमों की अकारादि शब्द-सूची भी प्रकाशित हो गई है। ११ अंगों की शब्द-सूची "अंगसुत्ताणि शब्द-सूची" (आगम शब्दकोश के नाम से) प्रकाशित है तथा शेष आगमों की शब्द-सूचियां आगमों के उन खण्डों के परिशिष्ट में ही समाहित कर दी गई हैं।
सभी आगमों का ग्रन्थाग्र-परिमाण भी प्रत्येक आगम के साथ निर्दिष्ट है। मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण
३२ आगमों में अब तक १० आगमों के वे संस्करण भी प्रकाशित हो गए हैं, जिनमें तीन कालमों में एक साथ मूल पाठ, संस्कृत छायानुवाद और हिन्दी अनुवाद दे दिए गए हैं। (इसकी सूची प्रकाशकीय में दे दी गई है-देखें पृष्ठ ६)। प्रत्येक अध्ययन के अन्त में (भगवई में आवश्यकतानुसार सूत्रों के अन्त में) पारिभाषिक शब्दों, दुरूह विषयों आदि पर विस्तृत व्याख्यात्मक टिप्पण (अथवा भाष्य) भी विपुल मात्रा में दे दिए गए हैं। आवश्यकतानुसार आगमों में उपलब्ध इन्हीं विषयों के संदर्भ आदि भी दिए गए हैं। आगमवाङ्मय की व्याख्या में तुलनात्मक रूप में वैदिक, बौद्ध आदि साहित्य तथा आयुर्वेद, अर्थशास्त्र एवं अन्य प्राचीन संस्कृत, प्राकृत आदि वाङ्मय का भी उपयोग किया गया है। कोई भी तटस्थ विद्वान यह अनुभव किये बिना नहीं रह सकता कि इतनी गहन एवं समीक्षात्मक व्याख्याएं जैन आगम-वाङ्मय पर अन्यत्र दुर्लभ है। इस रूप में सम्पादकविवेचक (भाष्यकार) आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का यह महान अवदान न केवल जैन वाङ्मय के क्षेत्र में अपितु समग्र रूप से प्राचीन भारतीय वाङ्मय के क्षेत्र में भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जैन आगम पञ्चम अंग भगवई (व्याख्याप्रज्ञप्ति) का सभाष्य विस्तृत संस्करण का कार्य चल रहा है। इसके प्रथम चार खण्डों में शतक १-१६ तक प्रकाशित हो चुके हैं। आगे के प्रकाशन में अभी कुछ समय लगेगा ऐसा अनुमान है। इसी बीच मैंने (मुनि महेन्द्रकुमार ने) तेरापंथ सम्प्रदाय के ग्यारहवें (वर्तमान) अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी से अनुनय किया कि भगवती के भाष्य का कार्य अभी पूर्ण करने
१.
आगमों में यत्र-तत्र पाठों को संक्षेप में 'जाव' द्वारा व्यक्त किया गया है, जिसका तात्पर्य है 'यावत' यानी 'प्रथम
शब्द से लेकर अंतिम शब्द तक।' बीच में रहे हुए पाठ कहां से लेना है, उसको पूर्ण करना जाव-पूर्ति कहलाता है।