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( XVI )
पुण्य पर्व | आचार्यश्री ने साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - इस चतुर्विध-संघ की परिषद् आगम-संपादन की विधिवत् घोषणा की।
"आगम-संपादन का कार्यारंभ
वि. सं. २०१२ श्रावण मास ( उज्जैन चातुर्मास ) से आगम-संपादन का कार्यारंभ हो गया। न तो संपादन का कोई अनुभव और न कोई पूर्व तैयारी। अकस्मात् धर्मदूत का निमित्त पा आचार्यश्री के मन में संकल्प उठा और उसे सबने शिरोधार्य कर लिया । चिंतन की भूमिका से इसे निरी भावुकता ही कहा जाएगा, किन्तु भावुकता का मूल्य चिंतन से कम नहीं है । हम अनुभव - विहीन थे, किन्तु आत्म-विश्वास से शून्य नहीं थे । अनुभव आत्म-विश्वास का अनुगमन करता है, किन्तु आत्म-विश्वास अनुभव का अनुगमन नहीं करता ।
"प्रथम दो-तीन वर्षों में हम अज्ञात दिशा में यात्रा करते रहे। फिर हमारी सारी दिशाएं और कार्य-पद्धतियां निश्चित व सुस्थिर हो गईं। आगम-संपादन की दिशा में हमारा कार्य सर्वाधिक विशाल व गुरुतर कठिनाइयों से परिपूर्ण रहा है, यह कह कर मैं किंचित् भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। आचार्यश्री के अदम्य उत्साह व समर्थ प्रयत्न से हमारा कार्य निरंतर गतिशील हो रहा है । इस कार्य में हमें अन्य अनेक विद्वानों की सद्भावना, समर्थन और प्रोत्साहन मिल रहा है। मुझे विश्वास है कि आचार्यश्री की यह वाचना पूर्ववर्ती वाचनाओं से कम अर्थवान् नहीं होगी।""
आगम-कार्य के प्रति गुरुदेव तुलसी अत्यधिक समर्पित थे । उन्हीं के शब्दों में "विहार चाहे कितना ही लम्बा क्यों न हो, आगम-कार्य में कोई अवरोध नहीं होना चाहिए । आगमकार्य करते समय मेरा मानसिक तोष इतना बढ़ जाता है कि समस्त शारीरिक क्लांति मिट जाती है । आगम-कार्य हमारे लिए खुराक है । मेरा अनुमान है कि इस कार्य के परिपार्श्व में अनेक-अनेक साहित्यिक प्रवृत्तियां प्रारम्भ होंगी, जिनसे हमारे शासन की बहुत प्रभावना होगी । २
एक विहंगावलोकन
पिछले छह दशकों में आगम-कार्य के अंतर्गत जो विशाल कार्य संपन्न हुआ है उसका एक विहंगावलोकन करने पर ज्ञात होगा कि किस प्रकार वाचना - प्रमुख गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी एवं सम्पादक - विवेचक महान् श्रुतधर आचार्यश्री महाप्रज्ञ के द्वारा अनेक साधु-साध्वियों के सहयोग से जैन साहित्य के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जो कार्य आज भी आगे बढ़ रहा है।
मूल पाठ
इस अर्वाचीन वाचना का सर्वाधिक दुरूह कार्य था - मूल पाठ के सम्पादन का और वह उत्तरज्झयणाणि, युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा २. लिखित सम्पादकीय, पृ. १३ ।
व्यवहार-भाष्य, सम्पादकीय, पृ. २५ (सम्पादिका - डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा)
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