________________
श. २ : उ. १ : सू. ४६-४८
भगवती सूत्र कालतः और भावतः। द्रव्यतः जीव एक और सान्त है। क्षेत्रतः जीव असंख्येय-प्रदेशी है, आकाश के असंख्येय-प्रदेशों में अवगाहन किए हुए है और वह अन्तसहित है। कालतः जीव कभी नहीं था, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है- वह था, है और होगा-वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित, नित्य है और उसका अन्त नहीं है, वह अनन्त है। भावतः जीव में अनन्त ज्ञान-पर्यव, अनन्त दर्शन-पर्यव, अनन्त चारित्र-पर्यव अनन्त गुरुलघुपर्यव, अनन्त अगुरुलघु-पर्यव हैं और उसका अन्त नहीं है, वह अनन्त है। स्कन्दक! इसलिए द्रव्यतः जीव सान्त है, क्षेत्रतः जी सान्त है, कालतः जीव अनन्त है, भावतः जीव अनन्त है। ४७. स्कन्दक! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआक्या सिद्धि सान्त है अथवा अनन्त है? उसका भी यह अर्थ है-स्कन्दक! मैंने सिद्धि चार प्रकार की बतलाई है, जैसे-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। द्रव्यतः सिद्धि एक और सान्त है।
क्षेत्रतः सिद्धि पैंतालीस (४५) लाख योजन लम्बी-चौड़ी है, उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपच्चास (१,४२,३०,२४९) योोजन से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है और वह अन्त-सहित है। कालतः सिद्धि कभी नहीं थी, कभी नहीं है और कभी नहीं होगी, ऐसा नहीं है-वह थी, है और होगी वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित, नित्य है और वह सान्त नहीं है, वह अनन्त है।
भावतः सिद्धि में अनन्त वर्ण-पर्यव, अनन्त गन्ध-पर्यव, अनन्त रस-पर्यव, अनन्त स्पर्शपर्यव, अनन्त संस्थान-पर्यव, अनन्त गुरुलघु-पर्यव, अनन्त अगुरुलघु-पर्यव हैं और वह सान्त नहीं है, वह अनन्त है। स्कन्दक! इसलिए द्रव्यतः सिद्धि सान्त है, क्षेत्रतः सिद्धि सान्त है, कालतः सिद्धि अनन्त है, भावतः सिद्धि अनन्त है। ४८. स्कन्दक! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआक्या सिद्ध सान्त है अथवा अनन्त है? उसका भी यह अर्थ है स्कन्दक! मैंने सिद्ध चार प्रकार का बतलाया है, जैसे द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः ।
७२