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भगवती सूत्र
प्रासु एषणीय-पद
४३८. भन्ते! प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ क्या बांधता है ? क्या करता है ? क्या चय करता है ? क्या उपचय करता है ?
श. १ : उ. ९,१० : सू. ४३८-४४२
गौतम ! प्रासु और एषणीय भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य-कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गाढ़ - बन्धन - बद्ध प्रकृतियों को शिथिल बन्धन-बद्ध करता है, दीर्घकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को अल्पकालिक स्थिति वाली करता है, तीव्र अनुभाव वाली प्रकृतियों को मन्द अनुभाव वाली करता है, बहुप्रदेश - परिमाण वाली प्रकृतियों को अल्प- प्रदेश - परिमाण वाली करता है; आयुष्य-कर्म का बन्ध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय कर्म का बहुत - बहुत उपचय नहीं करता और आदि - अन्तहीन दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार- कान्तार का व्यतिक्रमण करता है ।
४३९. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आयुष्य-कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गाढ़- बन्धन-बद्ध प्रकृतियों को शिथिल-बन्धन-बद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसारकान्तार का व्यतिक्रमण करता है ? गौतम ! प्रासु और षणीय भोजन करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आत्मा से धर्म का अतिक्रमण नहीं करता, आत्मा से धर्म का अतिक्रमण नहीं करता हुआ वह पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक जीवों के प्रति अपेक्षावान् होता है (निरपेक्ष नहीं होता) । वह जिन जीवों के शरीरों का भोजन करता है, उन जीवों के प्रति भी अपेक्षावान् होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आयुष्य-कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का गाढ़ - बन्धन-बद्ध प्रकृतियों को शिथिल - बन्धन-बद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार - कान्तार का व्यतिक्रमण करता है ।
शाश्वत अशाश्वत-पद
४४०. भन्ते ! क्या अस्थिर द्रव्य परिवर्तित होता है, स्थिर द्रव्य परिवर्तित नहीं होता ? क्या अस्थिर द्रव्य भग्न होता है, स्थिर द्रव्य भग्न नहीं होता ? क्या बालक शाश्वत है, बालकत्व अशाश्वत है ? क्या पण्डित शाश्वत है, पण्डितत्व अशाश्वत है ?
हां, गौतम ! अस्थिर द्रव्य परिवर्तित होता है, स्थिर द्रव्य परिवर्तित नहीं होता । अस्थिर द्रव्य भग्न होता है, स्थिर द्रव्य भग्न नहीं होता। बालक शाश्वत है, बालकत्व अशाश्वत है। पण्डित शाश्वत है, पण्डितत्व अशाश्वत है ।
४४१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं।
दसवां उद्देशक
परसमयवक्तव्यता- पद
४४२. भन्ते ! अन्ययूथिक ऐसा आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं
चलमान अचलित, उदीर्यमाण अनुदीरित, वेद्यमान अवेदित, प्रहीयमाण अप्रहीण, छिद्यमान
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