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नव पदार्थ
५६. पात्र को अन्न, पानी आदि बहराने तथा स्थान, शय्या, वस्त्र आदि देने की जिन देव आज्ञा देते हैं। उसमें पुण्य का बंध होता है।
५७. कोई अन्न, पानी, स्थान, शय्या व वस्त्र अन्य (अपात्र) को देता है। उसकी जिन भगवान आज्ञा नहीं देते। उसके पुण्य का बन्ध कैसे हो?
५८. सुपात्र को देने से पुण्य निष्पन्न होता है। वह करनी जिन आज्ञा में है। यदि अन्य किसी को देने से भी पुण्य निष्पन्न होता तो उसके लिए जिन-आज्ञा क्यों नहीं है?
५९. स्थान-स्थान पर सूत्र में देख लें कि निर्जरा और पुण्य की करनी एक है। जहां पुण्य होता है, वहां निर्जरा भी होती है। वहां विशेष रूप से जिन-आज्ञा है।
६०. पुण्य नौ प्रकार से निष्पन्न होता है तथा वह बयांलीस प्रकार से भोग में आता है। जीव के पुण्य का उदय होने से वह संसार में सुख-साता प्राप्त करता है।
६१. ये पुण्य के सुख अर्थहीन हैं। उनका विनाश होते देर नहीं लगती। इन सुखों की कभी वांछा नहीं करनी चाहिए, जिससे कि संसार रूपी समुद्र के पार पहुंचा जा सके।
६२. जिसने पुण्य की वांछा की है, उसने कामभोगों को वांछा है। कामभोग से संसार बढ़ता है। वहां प्राणी जन्म, मृत्यु और शोक को प्राप्त करता है।
६३. वांछा तो मुक्ति की करनी चाहिए। अन्य वांछा किंचित भी नहीं करनी चाहिए। जो पुण्य की वांछा करते हैं, वे मनुष्य-भव को हार जाते हैं।
६४. पुण्य निष्पन्न कैसे होता है यह बताने के लिए सं. १८४३, कार्तिक शुक्ला ४, गुरुवार को यह जोड़ कोठास्या गांव में की है।