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________________ नव पदार्थ ४९. सर्प के डंक मारने से विष फैलने पर नीम के पत्ते मीठ लगते हैं, उसी तरह पुण्य के उदय होने पर जीव को भोग मीठे और प्रधान लगते हैं। ५०. पुण्य के सुख रोगयुक्त हैं। उनमें जरा भी सार न समझें । वे सुख भी अनित्य और अशाश्वत हैं। इन्हें नष्ट होते देर नहीं लगती। ५१. आत्मिक सुख शाश्वत होते हैं। इन सुखों का कोई अंत नहीं है। ये सुख सर्वकाल में शाश्वत हैं और सदा एक समान रहते हैं। ५२. पुण्य की वांछा करने से एकान्त (केवल) पाप लगता है, जिससे इस लोक में दुःख पाना पड़ता है और जीव के शोक-संताप बढ़ता जाता है। ५३. जिसने पुण्य की वांछा-कामना की है उसने काम भोगों की कामना की है। उसके नरक-निगोद के दुःख होंगे और प्रिय वस्तुओं का वियोग होगा। ५४. पुण्य के सुख अशाश्वत हैं परन्तु वे भी करनी बिना प्राप्त नहीं होते। जो निरवद्य करनी करते हैं उनके पुण्य तो सहज ही आकर लगते हैं। ५५. पुण्य की कामना से पुण्य प्राप्त नहीं होते, पुण्य तो सहज ही आकर लगते हैं। पुण्य निरवद्य योग से तथा निर्जरा की करनी से संचित होते हैं। ५६. भली लेश्या और भले परिणाम से निश्चय ही निर्जरा होती है और निर्जरा के साथ-साथ पुण्य सहज ही स्वाभाविक तौर पर आकर लग जाते हैं। ५७. जो पुण्य की कामना से निर्जरा की करनी करते हैं, वे बेचारे उस करनी को व्यर्थ ही खोकर मनुष्य-जन्म को हारते हैं। ५८. पुण्य चतुःस्पर्शी कर्म है। जो उसकी कामना करते हैं, वे मूढ हैं। मिथ्यात्व की रूढ़ता के कारण उन्होंने कर्म और धर्म के अन्तर को नहीं पहचाना है। केवल मिथ्यात्व की रूढ़ि में पड़े हैं।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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