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________________ ३०६ भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १ १३. परमाद न सेव्यों कहें भगवांन नें रे, वले कहिता जारों पापी परमाद रे । न्याय निरणो विकला रें छें नही रे, यूंही करे कूडों विषवाद रे ॥ १४. मोह कर्म उदें सूं सावद्य सेवीयो रे, छदमस्थ थका श्री भगवांन रे । अजांणपणें नें विण उपीयोग छें रे, ते बुधवंत सुणो सुरत दे कांन रे ॥ १५. दस सुपना पिण भगवंत देखीया रे, दस सुपनां रो पाप लागों छें आंण रे । तिणरी संका म करजों चतुर सुजांण रे ॥ ते पिण दसूं सुपनों रो पाप जू जूओ रे, १६. कोइ कहें भगवंत तो घर छोड्या पछें रे, पाप रो अंस न सेव्यों मूल रे । जो वे सुपना देख्यां में पाप परूपसी रे, तो त्यांरें लेखें त्यांरी सरधा में धूल रे ॥ १७. सात प्रकारे छदमस्थ जाणीये रे, कह्यो छें ठाणा अंग सूतर मांहि रे । हिस्या लागें छें प्रांणी जीव री रे, वले लागें मिरषा नें अदतज ताहि रे ॥ १८. शब्दादिक अस्वादें रागें करी रे, पूजा स्तकार वांछें छें मन माहि रे । क असणादिक पिण सावद्य भोगवे रे, वागरें जेंसों करणी नावें ताहि रे ॥ १९. ए सातोइ सावद्य रा थांनक कह्या रे, छदमस्थ सेवें छें किण ही वार रे । त्यां पण प्राछित जथाजोग छें रे, जांण अजांण सेव्या रो करे विचार रे ॥ २०. ए सातोइ बोल न सेवें केवली रे, छदमस्थ पिण निरंतर सेवें नांहि रे । सेवें तो मोह कर्म उदें हुआं रे, संका हुवें तो जोवों सूतर रे मांहि रे ॥
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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