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________________ २५२ भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ १६. सों सों मिनख सगले वच्या, थोडी घणी हों सगले हुइ घात। जो धर्म बरोबर न लेखवें, तो उथपगी हो मूला पांणी री वात॥ १७. वात उथपती जांण नें, कदा कहिदे हो सगलें पाप ने धर्म। पिण समदिष्टी सरधे नही, ए तो काढ्यों हो खोटी सरधा रो भर्म॥ १८. असंजती रों मरणों जीवणों, वंछा कीधां हो निश्छे राग ने धेख। ओ धर्म नही जिण भाखीयों, सांसों हुवें तो हो अंग उपंग देख॥ १९. काच तणा देखी मिणकला, अण समझ्या हो जांणे रत्न अमोल। ते निजर पड्या सराफ री, कर दीधो हो त्यारों कोड्यां मोल॥ २०. मूला खवायां मिश्र कहें, आ सरधा हो काच मणी समांण। तों पिण झाली रत्न अमोल ज्यूं, नाय न सूझें हो चाला कर्मां रा जांण॥ २१. जीव मारे झूठ बोल नें, चोरी करने हो पर जीव वचाय। वले करे अकार्य एहवा, मरता राख्या हो मेथुन सेवाय॥ २२. धन दे राखें पर प्रांण नें, क्रोधादिक हो अठारें पाप सेवाय। ए सावध काम पोतें करी, पर जीवां में हो मरता राखें ताहि॥ २३. जों हिंसा करे जीव राखीयां, तिणमें होसी हो धर्म में पाप दोय। तों इम अठारेंइ जांणजों, ए चरचा में हो विरलो समझें कोय॥ २४. जों एकण में मिश्र कहे, सतरां में हो भाषा बोलें ओर। उंधी सरधा रों न्याय मिलें नही, जब उलटी हो कर उठे झोर॥
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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