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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ १४. ज्यूं आणंद श्रावक ने घरे जी, गोतम बोल्या कूड।
पडीया छदमस्थ चूक में, सुध हुवा वीर हजूर॥
१५. इम अवस उदें मोह आवीयों, नही टाल सक्या जगनाथ।
ते तो न्याय न जांणीयों, त्यारें माहे मूल मिथ्यात॥
१६. गोसाला ने नही वचावता तों, घटतों अछेरों एक।
निश्छे होणहार टलें नही जी, समझों आंण ववेक॥
१७. गोसाला ने वचावीयो तों, वधीयों घणों मिथ्यात।
लोहीठांण कीयो भगवंत नें, वले दोय साधां री घात॥
१८. गोसाला ने वचावीयां में, धर्म जांणे ए साम।
तो दोय साध वचावत आपणा, वले करता ओहीज कांम॥
१९. गोसाला में वचायनें जी, धर्म जांणे जिणराय।
दोय साध न राख्या आपणा, ओ किण विध मिलसी न्याय॥
२०. जगत में मरता देख में जी, आडा न दीधा हाथ।
धर्म जाणे तो आगों न काढता, तिरण तारण जगनाथ॥
न्याया
२१. ए विवरा सुध वतावीयों जी, सूत्र भगोती रे न्याय।
कुबदी करें कदागरों जी, सुबुधी रे आवें दाय॥
२२. साधां रा मुख आगलें, पंखी पडीयों माला थी आय।
कहें मेहलां ठिकाणे हाथ सूं तों, दया रहें घट माहि॥
२३. तपसी श्रावक उपाश्रे जी, काउसग दीयो ठाय।
तांगी मिरगी आय ढहि परयों जी, गाबड भागें जीव जाय॥