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७.
भिक्षु वाङ्मय खण्ड- १
ग्रहस्थ
बोल्या
वाय ।
साध पधारया देख नें जी, थे हाथ फेरो पेट उपरें जी, में श्रावक जीवा जाय ॥
जब कहें हाथ न फेरणों जी, ए साधु नें कहिता जीव वचावणों तो, बोंले नें
गोसाला नें वीर वचावीयो जी, तिणमें सों श्रावक नही वचावीयां, त्यांरी सरधा से
कल्पें
बदलो
कहें छें
निकल्यों
जगनाथ ।
गोसाला रें कारणें जी, लब्द फोडी सों श्रावक मरता देंख नें, ते कांय न फेरों हाथ ॥
८. धर्म कहें भगवंत नें, पोतें कांय छोडी रीत । सों श्रावक नही वचावीयां, त्यांरी कुण मांनें परतीत ॥
१०. इम कह्यां जाब न ऊपजें, जब कूडी करें हिवें साध कहें तुम्हें सांभलों जी, गोसाला रों
१३. छदमस्थ चूक पड्यों तकों निरवद्य कोई म जांणजो जी,
साख्यात ।
गोसाला नें वचावीयां में, धर्म कहें तों सों श्रावक नहीं वचावीयां, त्यांरी विगडी सरधा वात॥
नांहि ।
कांय ॥
धर्म ।
भर्म ॥
११. साध नें लब्द न फोडणी जी, कह्यों सूत्र भगोती रे पिण मोह कर्म वस राग थी जी, लीयों गोसालों
बकवाय ।
न्याय ॥
१२. छ लेस्या हूंती जद वीर में जी, हूंता आठोई छदमस्थ चूका तिण समें जी, मूर्ख
थापें
जी, मूंढें आंणें अकल हीया री
मांहि ।
वचाय ॥
कर्म ।
धर्म ॥
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बोल । खोल ॥