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दोहा
१. पर प्राणी को स्वयं मारे नहीं, मन से, वचन से और काया से। दूसरे से मरवाए नहीं, मन से, वचन से और काया से। मारने वाले को अच्छा समझे नहीं, मन से, वचन से और काया से। ये नव कोटि प्रत्याख्यान कहे जाते हैं।
२. यह अभयदान स्वरूप दया जिनेश्वर देव ने आगम में बताई है। फिर भी जैन कहलाने वाले लोगों ने धांधली मचा रखी है।
३. अभयदान को पहचाना नहीं। दया का कुछ पता नहीं। वे भद्र लोगों के सामने झूठा प्रपंच करते हैं।
४. कहते हैं, साधु जीव को बचाते हैं, दूसरों को कहते हैं तुम भी बचाओ और बच जाने पर उसे अच्छा समझते हैं। लेकिन पूछने पर बदल जाते हैं।
ढाल:६
चतुर मनुष्यों! ज्ञानपूर्वक विचार करके समझें ॥ १. इस साधु के वेश में कुछ लोग ऐसी बात कहते हैं-हम षट्कायिक जीवों के रक्षक हैं, क्योंकि हम जीव बचाने के लिए जाते हैं।
२. वे ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि जीव बचाने से पाप कर्म का बंध नहीं होता। पूछने पर वे पलट जाते हैं। भोले लोगों को कुछ भी पता नहीं है।
३. सौ श्रावकों का पेट दुःख रहा है। मानो कि शरीर और प्राण अलग अलग हो रहे हैं। उस समय साधु वहां आ गए। पेट पर हाथ फेरने से उनको सुख होता है।