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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ १३. सुख वपराय सारा लोक में, विलखा देख पुत्र रतन रे।
जो तूं दया पालण ने उठीयो, तो कर तूं यांरा जतन रे॥
१४. नमी कहें वसूं जीवू सुखे, मारी पुल पुल सफला जात रे।
मिथला नगरी दाझतां, माहरो बळे नहीं तिलमात रे॥
१५. मोंने हरष नही मिथला रह्यां, बलीयां नहीं सोग लिगार रे।
सावध जांण त्यागी जका, रही बली चावें नहीं अणगार रे॥
१६. नमिराय रिषि आंणी नही, मोह अणुकंपा री वात रे।
समभाव राखे मुगते गया, करे आठ करमां री घात रे॥
१७. श्री केसव केरो बंधवों, ओं तो नांमें गजसुखमाल रे।
तिण दीख्या ले काउसग्ग रह्यों, सोमल आयो तिण काल रे॥
१८. माथें पाल बांधी माटी तणी, माहे घाल्या लाल अंगार रे।
कष्ट उपनों वेदन अति घणी, नेम कुरणा न आंणी लिगार रे॥
१९. श्री नेम जिणेसर जांणता, होसी गजसुखमाल री घात रे।
पिण अणुकंपा आंणी नही, ओर साध न मेल्या साथ रे॥
२०. श्री वीर जिणंद चोवीसमा, कल्पातीत मोटा अणगार रे।
त्यांने देव मनुख तिरजंच ना, उपशर्ग उपना अपार रे॥
२१. संगम देवता भगवान नें, दुख दीधा अनेक प्रकार रे।
अनार्य लोकां पिण वीर नें, स्वांनादिक दीधा लार रे॥
२२. चोसठ इंद्र महोछव आवीया, दीख्या रे दिन भेला होय रे।
पिण कष्ट पड्यों भगवान नें, नायो उपशर्ग टालण कोय रे॥