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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ३९. सझाय तप छे पांच प्रकारें, जे भाव सहीत करें सोय जी।
अर्थ में पाठ विवरा सुध गिणीया, कर्मां रा भड खय होय जी।।
४०. आरत रुद्र ध्यान निवारें, ध्यावें धर्म में सुकल ध्यांन जी।
ध्यावतो ध्यावतो उतकष्टों ध्यावें, तो उपजें केवल ग्यांन जी।।
४१. विउसग तप छे तजवारो नाम, ते तो द्रब में भाव में दोय जी।
द्रब विउसग च्यार प्रकारे, ते विवरो सुणो सहू कोय जी।।
४२. शरीर विउसग सरीर रो तजवो, इम गण नो विउसग जांण जी।
उपधि नो तजवो ते उपधि विउसग, भात पाणी रो इमहीज पिछांण जी।।
४३. भाव विउसग रा तीन भेद छे, कषाय संसार में कर्म जी।
कषाय विउसग च्यार प्रकार, क्रोधादिक च्यारूं छोड्यां छे धर्म जी।।
४४. संसार विउसग संसार नों तजवों, तिणरा भेद छे च्यार जी।
नरक तिर्यंच मिनख में देवा, त्यांने तजनें त्यांतूं हुवे न्यार जी।।
४५. कर्म विउसग छे आठ प्रकारें, तजणा आठोइ कर्म जी।
त्यांने ज्यूं ज्यूं तजें ज्यूं हलको होवें, एहवी करणी थी निरजरा धर्म जी।।
४६. बारे प्रकारे तप निरजरा री करणी, जे तपसा करें जांण जी।
ते कर्म उदीर उदे आंण खेरें, त्यांने नेडी होसी निरवांण जी।।
४७. साध रे बारें भेदें तपसा करतां, जिहां जिहां निरवद जोग रूंधाय जी।
तिहां तिहां संवर हुवें तपसा रे लारे, तिणसूं पुन लगता मिट जाय जी।।