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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ १९. पाडुआ मन ने रुंधे देणों, भलों मन परवरतावणो तांम जी।
इम हीज वचन में काया जांणों, जोग संलीणीया हुवें आम जी।।
२०. अस्त्री पसू पिंडग रहीत थांनक सेवें, ते सुध निरदोषण जांण जी।
पीढ पाटादिक निरदोषण सेवें, विवत सेंणासण एम पिछांण जी।।
२१. छव प्रकारें बाहर्य तप कह्यों छे, ते प्रसिद्ध चावो दीसंत जी।
हिवें छ प्रकारे अभिंतर तप कहूं छू, ते भाख्यो , श्री भगवंत जी।।
२२. प्रायछित कह्यों छे दस प्रकारें, दोष आलोए प्रायछित लेवंत जी।
ते कर्म खपाय आराधक थावें, ते तो मुगत में वेगों जावंत जी।।
२३. विनों तप कह्यों सात प्रकारें, त्यांरो छे बोहत विसतार जी। ___ग्यांन दर्शण चारित मन विनो, वचन काया में लोग ववहार जी।।
२४. पांचूं ग्यांन तणा गुणग्रांम करणा, ए ग्यांन विनों करणों , एह जी।
दर्शण विनां रा दोय भेद छ, सुसरषा में अणासातणा तेह जी।।
२५. सुसरषा बडां री करणी, त्यांने वंदणा करणी सीम नाम जी।
ते सुसरषा दस विध कही छे, त्यांरो जूआ जूआ नाम छ तांम जी।।
२६. गुर आयां उठ उभों होवणो, आसण छोडणो तांम जी। __ आसण आमंत्रणों हरष सूं देणो, सतकार ने सनमान देणों आंम जी।।
२७. वंदणा कर हाथ जोडी रहें उभों, आवता देख सांहों जाय जी।
गुर उभा रहें त्यां लग उभा रहिणों, जाओ जब पोहचावण जाों ताहि जी।।
२८. अणअसातणा विना रा भेद, पेंतालीस कह्या जिणराय जी।
अरिहंत में अरिहंत परूप्यों धर्म, वले आचार्य ने उवझाय जी।।