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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ १०. उणों रहे ते उणोदरी तप छे, ते तो दरब ने भाव छै न्यार जी।
दरब ते ऊपगरण उणा राखें, वले उणोइ करें आहार जी।।
११. भाव उणोदरी क्रोधादिक वरजें, कलहादिक दियें छे निवार जी।
समता भाव छे आहार उपधि थी, एहवो उणोदरी तप सार जी।।
१२. भिख्याचरी तप भिख्या त्याग्यां हुवें, ते अभिग्रहा , विवध प्रकार जी।
ते तो द्रव खेतर काल भाव अभिग्रह छे, त्यांरो छे बोहत विस्तार जी।।
१३. रस रो त्याग करें मन सुधे, छांड्यो विगयादिक रो सवाद जी।।
अरस विरस आहार भोगवें समता सूं, तिणरें तप तणी हुवें समाद जी।।
१४. काया कलेस तप कष्ट कीयां हवें, आसण करें विवध प्रकार जी।
सी तापादिक सहें खाज न खणे, वले न करें सोभा ने सिणगार जी।।
१५. परीसंलीणीया तप च्यार प्रकारें, त्यांरा जूआ जूआ , नाम जी।
इंद्री कषाय में जोग संलीण्या, विवत सेंणासण सेवणा तांम जी।।
१६. सोइंद्री में विषय ना शब्द सूं रूंधे, विर्षे शब्द न सुणे किंवार जी।
कदा विषे रा सबद कानां में पडीया, तो राग धेष न करें लिगार जी।।
१७. इम चखू इंद्री रूप सूं संलीनता, घण इंद्री गंध सुं जांण जी।
रसइंद्री रस सु में फरस इंद्री फरस सूं, सुरत इंद्री ज्यूं लीजों पिछांण जी।।
१८. कोध उपजावारो रुंधण करवों, उदें आयों निरफल करें तांम जी।
मांन माया लोभ इम हीज जाणों, कषाय संलीणीया तप हुवें आम जी।।