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________________ भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ दूसरी ढाल में अजीव तत्त्व पर विवेचन किया गया है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय को अजीव के रूप में व्यक्त किया गया है। ये पांचों ही द्रव्य लोक रचना के मुख्य घटक हैं। आज तो वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन पर गहरा विचार किया जा रहा है। गति और स्थिति के लिए धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय का सहयोग आवश्यक है। वैसे ही अवगाह के लिए आकाशास्तिकाय की सहायता आवश्यक है। काल एक वैकल्पिक द्रव्य है। वह सब द्रव्यों पर वर्तता है इसलिए यह द्रव्य माना गया है। आइंस्टीन ने भी टाइम और स्पेश के रूप में काल और आकाश पर गणितीय तरीके से बहुत महनीय प्रकाश डाला है। पुद्गलास्तिकाय एक अत्यंत रहस्यमय तत्त्व है। पुद्गल का अर्थ है वर्ण, गंध, रस और स्पर्शमय भौतिक तत्त्व। आज परमाणु की बहुत चर्चा है। पर जैन आगमों में २५०० वर्ष पूर्व पुद्गल परमाणु पर बहुत सूक्ष्म विवेचन किया गया है। पुद्गल स्कन्धों की रचना विचित्र होती है। बौद्धिक स्तर पर उनकी व्याख्या करना बहुत कठिन है। अनन्त प्रदेशी स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश में समा जाता है। विस्तार होने पर वह पूरे लोक में फैल जाता है। परमाणु द्रव्य पुद्गल है। परमाणु कभी अपरमाणु नहीं होता। पांच शरीर आठ कर्म भी पुद्गल की परिणतियां हैं। छाया, धूप, कांति, प्रकाश आदि भी भाव पुद्गल है। इस प्रकार अजीव तत्त्व के अंतर्गत पूरे विश्व-लोक का वर्णन समा गया पुण्प तत्त्व पर दो ढालों में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। आचार्य भिक्षु ने बताया है कि पुण्य का बंध स्वतंत्र रूप से नहीं होता। शुभ योग से निर्जरा के साथ पुण्य का बंधन होता है। पुण्य पदार्थ के विवेचन में नौ पुण्यों की चर्चा करते हुए यह भी बताया गया है कि अन्न, पानी, वस्त्र आदि स्वयं पुण्य नहीं है अपितु पुण्य बंध के अनन्तर हेतु हैं। शुद्ध साधु को अचित्त अन्न आदि देने की शुभ क्रिया से ये पुण्य बंध के अनन्तर हेतु बनते हैं। यह क्रिया कर्मागम का हेतु बनती है, उससे पुण्य का बंध होता है। जब वह जीव के शुभ रूप में उदय में आता है, तब भाव पुण्य बनता है। कई ग्रंथकारों ने अनेक स्थानों पर कार्य-कारण को एक मान कर अन्न पुण्य, पान पुण्य आदि की व्याख्या की है, पर आचार्य भिक्षु ने सुपात्र को दान देने में शुभ कर्म का १. नव पदार्थ, ढा. २.५६,५७ २. नव पदार्थ, ढा. ४.१
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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