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________________ आमुख जैन साधना पद्धति का मूल विचार है जीवाजीवविभक्ति जीव और अजीव का भेदज्ञान । जो जीव और अजीव को नहीं जानता वह संयम को कैसे जानेगा ? आस्तिक और नास्तिक में यही मूल भेद है। अस्तिक जीव को मानता है, नास्तिक जीव का नहीं मानता। पर जीव और अजीव सह-अस्तित्व वाले पदार्थ हैं । जीव है तो अजीव होगा ही और अजीव है तो जीव भी होगा ही । जैन परम्परा में मूल तत्त्व दो ही माने गए हैं। साधना की दृष्टि से पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष को जोड़कर उनकी संख्या नौ मानी गई है । क्वचित् सात तत्त्वों का भी उल्लेख मिलता है, यह एक सापेक्ष दृष्टि है । पुण्य और पाप को अलग नहीं मान कर बंध के अंतर्गत ले लिया गया है। आचार्य भिक्षु ने नव पदार्थ में नौ तत्त्वों पर गहरा विश्लेषण किया है। पहली ढाल में उन्होंने जीव क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? वह कैसे कर्मों का बंध करता है ? आदि पर चर्चा करते हुए कहा है सासतों जीव द्रव्य साख्यात, कदे घटें नहीं तिलमात । तिणरा असंख्यात प्रदेस घटें वधें नहीं लवलेस ॥ जीवद्रव्य है और वह शाश्वत है। वह असंख्य चैतन्यमय प्रदेशों का अकृत्रिम पिंड है । उसका एक प्रदेश भी न घटता है और न बढ़ता है । इस अपेक्षा से वह शाश्वत है | जीव एक अरूपी तत्त्व है । इसलिए उसे इन्द्रिय से नहीं जाना जा सकता । यद्यपि जीव को सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण दिए जाते हैं। पर अहं प्रत्यय से बढ़कर इसका कोई प्रमाण नहीं हो सकता । भगवती सूत्र के २० वें शतक में जीव के तेईस नाम बताए हैं । आचार्य भिक्षु ने उन एक-एक नाम का गुणानुरूप सूक्ष्म विवेचन करते हुए जीव द्रव्य का विशद विवेचन किया है। उन्होंने पांच भावों की चर्चा करते हुए द्रव्य जीव और भाव जीव पर भी गहरा प्रकाश डाला है ।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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