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भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १
१३. अर्जेंणा करें भंडउपगरण थको, तिणनें पिण जोग आश्व जांण हो । सुची - कुसग सेवे ते आश्व कह्यों, त्यांनें त्याग्यां विरत संवर पिछांण हो ।।
१४. हिंसादिक पनरें तो जोग आश्व कह्यां, त्यांनें त्याग्यां विरत संवर जांण हो । त्या पनरां नें माठा जोग माहे गिण्या, निरवद जोगां री करजों पिछांण हो । ।
१५. तीनोइ निरवद जोग संध्यां थकां अजोग संवर होय जात हो ।
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ए बीसोंइ संवर तणों विवरों कह्यों, ते बीसोंड़ पांच संवर में समात हो ।।
१६. कोइ कहें कषाय नें जोगां तणा, सूतर माहे चाल्या पचखांण हो । त्यांनें पचख्यां विनां संवर किण विध होसी, हिवें तिणरी कहुं छूं पिछांण हो । ।
१७. पचखांण चाल्यों छें सूतर में सरीर नों, ते शरीर सूं न्यारों हुवां तांम हो । इमहि कषाय में जोग पचखांण छें, शरीर पचखांण ज्यूँ आंम हो । ।
१८. सामायक आदि पांचून चारित भणी, सर्व विरत संवर जांण हो । पुलाग आदि दे छहूइ नियंठा, ए पिण लीजों संवर पिछांण हो ।।
१९. चारितावर्णी खयउपसम हूआं, जब जीव नें आवें वेंराग हो । जब कांम नें भोग थकी विरक्त हुवें, जब सर्व सावद्य दें त्याग हो ।।
२०. सर्व सावद्य जोग नें त्यागें सर्वथा, ते सर्व विरत संवर जांण हो । जब इविरत रा पाप न लागे सर्वथा, ते तो चारित छें गुण खांण हो । ।
२१. धूर सूं तो सामायक चारित आदस्यों, तिणरे मोह कर्म उदें रह्यों ताहि हो । ते कर्म उदें सूं किरतब नीपजें, तिणसूं पाप लागें छें आय हो ।।
२२. भला ध्यान नें भली लेस्या थकी, मोह कर्म उदें थी घट जाय हो । जब उदें तणा किरतब पिण हलका पडें, जब हलकाइ पाप लगाय हो । ।