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दोहा १. भरतजी ने अनेक उपाय किए पर कोई सफल नहीं हुआ। अत्यधिक मोहविलाप करते हुए अंतत: जिस दिशा से आए थे उसी ओर लौट गए।
२. भरतजी के चले जाने के बाद बाहुबलजी ने मन में विचार किया कि मैं भगवान् ऋषभदेव के सामने कैसे जाऊं? ।
३. वहां मेरे अट्ठानवे छोटे भाई हैं। उन्होंने मेरे से पहले संयम भार ग्रहण कर लिया। वहां मुझे उन सबके पैरों में वंदना करनी पड़ेगी। इसलिए मैं यहां अकेला ही अलग रह जाऊं।
४. मैं उनमें शामिल हुए बिना ही उत्कृष्ट साधना करके कर्मों का नाश कर अकेला सीधा मुक्ति में चला जाऊं।
५. ऐसी उल्टी बात सोचकर वे जंगल में चले गए और निर्दोष स्थान पर जाकर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो गए।
६. उन्होंने चारों ही आहारों का त्याग कर दिया। इस प्रकार पूरा एक वर्ष बीत गया। भगवान् ऋषभदेवजी नगरी में आकर उपवन में ठहरे।
७. अनेक लोग उनका प्रवचन सुनने के लिए जिस दिशा से आये उसी दिशा में लौट गए। उस काल में गणधरों ने भगवान् ऋषभ के पास आकर पूछा।
ढाळ : १४
हम विनयपूर्वक निवेदन करते हैं। १. हम विनयपूर्वक हाथ जोड़कर, नत-मस्तक होकर आपसे निवेदन करते हैं कि चारित्र ग्रहण कर बाहुबलजी कहां गए? ।