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सम्पादकीय
सत्य एक अगम विस्तार है। उसे अविकल रूप से समझ पाना सर्वज्ञता का ही विषय है। सर्वज्ञता एक अतीन्द्रिय अनुभूति है। उसे बौद्धिक या तार्किक दृष्टि से समझ पाना असंभव है। जब हम भगवान महावीर की वाणी का अनुशीलन करते हैं तो लगता है आगमों का ज्ञान एक अपार पारावार है। मैंने स्वयं भी आगमों की अनुप्रेक्षा की है तथा गुरुदेव आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ की सन्निधि में आगम-सम्पादन के कार्य में भी मेरी भागीदारी रही है। इस सिलसिले में मैं आगमों की अपार ज्ञानराशि से अत्यन्त प्रभावित हुआ। मुझे ज्ञान के आनंत्य की एक झलक मिली। मैं केवल भगवती सूत्र की ओर दृष्टिपात करता हूं तो मुझे लगता है वह ज्ञान का विशाल खजाना है। उसमें अणु-परमाणु से लेकर समूचे लोक पर विस्तार से विचार किया गया है।
भगवान महावीर की वाणी प्राकृत भाषा में निबद्ध है। आचार्यश्री तुलसी ने उसे हिन्दी में अनूदित करने का बीड़ा उठाकर एक भागीरथ प्रयत्न किया है। आज प्राकृत को समझने वाले लोगों की संख्या अत्यंत अल्प है। सचमुच उसके हार्द को समझ पाना तो आचार्य महाप्रज्ञ जैसे कुछ विरले ही लोगों के लिए संभव है।
तेरापंथ परम्परा में पलने के कारण मैंने आचार्य भिक्षु के साहित्य को भी पढ़ा है। मैं उनकी प्रतिभा से भी अत्यन्त अभिभूत हूं। उन्होंने आगमों का मन्थन कर उसे अत्यंत कुशलता से राजस्थानी भाषा में गूंथ दिया। निश्चय ही महावीर को समझने में उन्होंने जो अर्हता प्राप्त की वैसी बहुत कम लोग कर पाते हैं। उनकी वाणी सहज ज्ञानी की वाणी है। वह स्वयं स्फुरित है। उसमें निर्मल रश्मियों एवं अनुभवों का प्रकाश है। उनकी दृष्टि स्पष्ट और सही सूझ-बूझ वाली है। उसमें जैन दर्शन के मौलिक स्वरूप पर दिव्य प्रकाश है तथा क्रांत वाणी की तीव्र भेदकता और उद्बोध है। स्व-समय और पर-समय का सूक्ष्म विवेक उनकी लेखनी के द्वारा जैसा प्रकट हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। मिथ्या मान्यताओं पर उन्होंने करारा प्रहार किया है। संस्कृत व्याख्या साहित्य की बात तो दूर है उन्हें