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दोहा
१. भरतजी की वाणी सुनकर अनेक राजे अत्यंत हर्षित हुए। उस अवसर पर दस हजार राजे संयम लेने के लिए तैयार हो गए।
२. हाथ जोड़कर यों कहने लगे- हम आपके वचनों पर श्रद्धा करते हैं। आप भवजीवों को तारने वाले हैं। हमें सच्चे स्वजन के रूप में प्राप्त हुए हैं।
३. हमने संसार को अनित्य जान लिया है। मोक्ष सुखों को सारभूत समझ लिया है। हम जन्म - मृत्यु से डर गए हैं। संयम ग्रहण करेंगे।
४. भरतजी ने पलटते ही कहा- यदि तुमको संयमभार लेना है तो देर मत करो । जो घड़ी बीत जाती है वह लौटती नहीं है ।
५. दस हजार राजाओं ने उसी समय ईशान कोण में जाकर अलंकार - आभूषणों को उतार कर पंचमुष्टि लोच कर लिया ।
६. साधु का वेष पहनकर भरतजी के सामने आकर खड़े हुए। विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर विचारपूर्वक बोले ।
७. इस संसार में बहुत दुःख है । जन्म-मरण की ज्वाला जल रही है । आप हमें सर्व सावद्य का त्याग कराकर उससे हमें बाहर निकालो।
ढाळ : ७१
ऐसे मुनिराज को मैं नमस्कार करता हूं ।
१. दस हजार राजाओं के वैराग्य को जानकर भरत मुनिवर ने उनको सर्व सावद्य योग का त्याग करा दिया।
ऋद्धि,
२. एक बार वाणी सुनकर ही काम-भोगों का त्याग कर दिया । राज्य, रमणियों का त्याग कर दिया। बाकी कुछ नहीं रखा।