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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० २. कोडंबी पुरुष बोलाय, तिणनें कहें भरतेसर राय। आज हो।
कार्य करो एक वेग सताबसूं जी।।
३. वनीता
नगर
मझार,
अभिंतर ने बाहर। कचरो काढो थे सगलों बूहारनें जी।।
४. मांचा
ऊपर
मांचा मंड, ऊंचा करो प्रचंड।
दीसत दीसें छे अति रलीयांमणा जी।।
वस्त्र
___ रूडा
श्रीकार,
पंचवरणा विविध प्रकार। ध्वजा नें पताका करजो तेहना जी।।
ऊपर धजा करो तास, ते उडती गगन आकास।
पताका ऊपर पताका बांधजो जी।।
७. ते धजा
पताका
ताम,
ते करजो ठांम ठांम। गगन आकासें सोभे लहकता जी।।
८. ध्वजा
चंद्रवा
चूप, त्यांमें विविध भांतरा रूप।
झूबक लटकंता त्यारें सोभता जी।।
९. चंदण
गोसीस
वखांण,
वळे रातो चंदण आंण। थापाने देजो पांचूं अगल तणा जी।।
१०. चंदण
कलस
अनेक, वळे न्हांना घड़ा विशेख।
भर भर मूकजों रसतें सेरीयां जी।।
गंध
सुगंध
वर
आंण,
सेलारस अगर वखाण। अबीर कसतुरी आंण उखेवजो जी।।
१२. इत्यादिक
गंध
अभिरांम, उखेवजों ठाम ठांम।
सगंध करजो सगली नगरी मझे जी।।