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दोहा १. उस काल और उस समय में विनीता नगरी में ऋषभ जिनेंद्र अपने बड़े साधु परिवार के साथ पधारते हैं।
२. भव जीवों के भाग्य से वे उपवन में आकर उतरे। मोक्ष का मार्ग दिखलाते हुए वैराग्य को जगाते हैं।
३. नगरी में नागरिकों को पता चला तो हर्षित होकर वहां आने लगे। भरतजी भी यह सुनकर हर्षित हुए और सज-धज कर वंदना करने के लिए आए।। ३ ।।
४. हर्ष से वंदना की और सामने आकर बैठ गए। भगवान् ने सब के हित के लिए उपदेश दिया।
५. उपदेश सुनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी उसी दिशा में चली गई। अब भरत नरेंद्र प्रश्न करते हैं उसे चित्त लगाकर सुनें।
ढाळ : ६४
मैं आपसे विनयपूर्वक एक प्रश्न कर रहा हूं। १,२. हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर पूछते हैं- स्वामिन् ! अभी इतनी परिषद् जुड़ी है, इसमें बड़े-बड़े मुनिराज, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएं आए हैं। आगेपीछे, जल्दी या देरी से, ये सारे निर्वाण को प्राप्त होंगे।
३. मुझे इसमें शंका नहीं है। इसलिए मैं यह प्रश्न भी नहीं करता हूं। मैं तो यही पूछता हूं- इतनी बड़ी परिषद् में क्या आप जैसा कोई तीर्थंकर भी होगा? ।