________________
३४८
भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ४. वेसमण देवता देवतां रो राजा, मोटें मंडाण आवें केलासों जी।
परवत जिम उंचा , ज्यारें, सिखरबंध मेंहल आवासो जी।।
५. मित्र न्यातीला सूं आय मिलीया वळे, सगा सजनादिक जांणों जी।
परिजन दास दासी आदि देइ, त्यांने बोलावे कर कर पिछांणो जी।।
६. कुसल खेम समाचार पूछे, बोलावें सनेह सहीतो जी।
सनेहदिष्ट त्यां साहमों जोवें, जथाजोग करता थका प्रीतो जी।।
७. जथाजोग सगला सूं मिलता, वळे पूछता थका समाचारो जी।
जब हरष रा आंसूं पडें आंख्यां मांसू, देख देख भरत जी रो दिदारो जी।।
८. इणं विध न्यातीलां सूं मिलने भरतजी, गया मंजण घर मांडों जी।
मंजण करनें भोजन घर आया, तेला रो पारणों कीयों ताह्यो जी।।
९. भोजन कीयां पठे सुखे समाधे, बेठा प्रसाद मझारो जी।
मादल मस्तक फूटे रह्या छ, नाटक प. बत्तीस प्रकारो जी।।
१०. वर प्रधान तुरणी अस्त्रीयां संघातें, भोगवे , काम में भोगो जी।
मोटें मंडाण आडंबर करने, आय मिलीयों छे सर्व संजोगों जी।।
११. एहवा भोग संजोग मिलीया ते, सारा ग्यांन सूं जाणे वमन अहारो जी।
त्यांने त्यागसी वैराग भाव आणनें, इण भव जासी मोख मझारो जी।।