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भरत चरित
३२१ २३. पुण्य के सुख पांम के दृष्टांत की तरह रुग्ण हैं। भगवान् ने कहा हैउनकी कामना नहीं करनी चाहिए।
२४. जो पुण्य की कामना करता है वह कामभोगों की कामना करता है। जिसने संसार को सारपूर्ण समझा है, उसके मिथ्यात्व का महारोग है।
२५. निरवद्य करणी करने से जब पुण्य का बंध होता है उसे भोगे बिना मोक्ष में नहीं जाया जा सकता।
२६. यदि जीव पुण्यभोग से खुश होता है तो ढेर सारे पापों का बंध हो जाता है। उससे दुःख भोगना पड़ता है। दारिद्र्य सामने उपस्थित हो जाता है।
२७. पुण्य के सुख पौद्गलिक हैं। उनमें कोई कला-कौशल नहीं समझें। आत्मसुख मोक्ष में हैं। वे अनंत हैं।
२८. भरतजी ने पुण्य से जिन भोगों को प्राप्त किया, उन्हें वे जहर के समान जानते हैं। उन्हें भी बिल्कुल छोड़कर चरित्र निधान ग्रहण करेंगे।
२९. उन्हें छोड़ने में विलंब नहीं करेंगे। उनसे बिल्कुल विरक्त हो जाएंगे। दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष के शाश्वत सुखों को प्राप्त करेंगे।