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भरत चरित
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१२. उनके बोलने पर सामने वाला अपने आप चुप हो जाता है। पुण्य के प्रताप से उनका तप-तेज-आताप भी विशिष्ट है।
१३. वे सबको प्रिय हैं। उनकी बोली अमृत के समान हैं। उनका बोलना सबको सुहामना लगता है। यह पुण्य का स्वरूप है।
१४. शब्द आदि की ऋद्धि-संपदा के जो भी अनुपम सुख संयोग आकर मिले हैं, वे सब पुण्य के स्वरूप हैं।
१५. पूर्व तप के फलस्वरूप भरतजी ये सब सुख भोग रहे हैं। तप करने से जो पुण्यबंध हुआ वही अब उदय में आया है।
१६. जिस जीव के जब तक पुण्य हैं तब तक वह सबको प्रिय लगता है। जब पुण्य नष्ट हो जाते हैं तो स्नेही भी बैरी बन जाता है।
१७. पुण्यवान् के मन चिंतित सब कार्य सिद्ध होते हैं। पुण्यहीन प्राणी को रोने पर भी राज्य नहीं मिलता है।
१८. पुण्यहीन मनुष्य का चिंतित भी निष्फल हो जाता है। वह मन में जो भी आशा करता है वह विलुप्त हो जाती है।
१९. संसार में जो भी सुखोपभोग किया जाता है, वह पुण्य का फल है तथा जो दुःख उत्पन्न होता है वह पाप का परिणाम है।
२०. जो जीव पुण्य से हर्षित होता है तथा पाप से शोक संतप्त होता है, इन दोनों ही प्रकारों से वह बेचारा एकांत पाप का बंधन करता है।
२१. पुण्य के सुख स्वप्न की माया की तरह नाशमान हैं। उनके विनष्ट होने में देर नहीं लगती। थोड़े में ही वे विलुप्त हो जाते हैं।
२२. पुण्य संसार के सुख हैं। मोक्ष के हिसाब से वे सुख नहीं हैं। जिन्होंने मोक्ष के सुखों को पहचान लिया वे इनमें अनुरक्त नहीं होते।