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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ६. तिणरें अधिष्टायक देवता एक हजार, सेवग जिम रहें आगनाकार।।
७. सहस देवता करें मन चिंतव्या काम, किंकर जिम रूखवाला ताम।।
८. अस्त्री रत्न छे अमोलक रूडों, तिणरें मिलियों छे संजोग पूरो।।
९. काम भोग माहे पांम रही छे आणंद, तिण वस कर लीयो भरत नरिंद।।
१०. मिनखां माहे उतकष्टा काम में भोग, भोगवें श्री राणी रे संजोग।
११. जिण काल में चक्रवत उपजें छे आय, जब अस्त्री रत्न पिण थाय।।
१२. चक्रवत विना अस्त्री रत्न न होय, तिणमें संक म राखो कोय।।
१३. भरत नरिंद जाणे पूनम चंद, ते पिण तिण दीठां पांमें आणंद।
१४. भरत चक्रवत में असत्री रत्न, तिणरा देवता करें छे देवता जत्न।।
१५. मनगमता संजोग मिल्या यारें आंण, ते तों करणी तणा फल जाण।।
१६. यांरा इचर्यकारी छे भोग संजोग, त्यांरो कदेय न वांछे विजोग।।
१७. अपछरा सरिखों रूप छे जिणरों, जस कीरत घणों , तिणरो।।
१८. ओं तो समकालें जोग मिलें छे ॲसों, जब जसा कू मिल जाों तेंसो।।
१९. त्यारे प्रीत माहोमा अंतरंग लागी, राजा रांणी दोनूं बड भागी।।