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भरत चरित
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४. जय-विजय शब्दों के उद्घोष और मांगलिक शब्दों के प्रयोगों के साथ वह स्नानघर से बाहर आता है तथा उपस्थानशाला में उपस्थित होता है।
५. वहां पर हस्तीरत्न खड़ा है। सेनापति उस पर सवार हो गया। हस्ती पर सवार होकर भी वह छत्र धारण कर रहा है। विविध प्रकार से उसके गुणगान किये जा रहे हैं।
६. वह चार प्रकार की सेना तथा बड़े-बड़े जोध-जवान वृंदों से घिरा हुआ निर्भय निरुपद्रव तथा सानंद चल रहा है।
७. सिंहनाद की तरह गूंजते हुए तथा सागर की तरह गरजते हुए स्वरों की प्रतिध्वनि हो रही है। सेना की ऋद्धि ज्योति का बड़ा विस्तार है।
८. शब्द और वाद्य-यंत्रों से आकाश में जैसे मेघ गरज रहा है। इस प्रकार चलते हुए सेनापति सिन्धु नदी के किनारे पर आकर खड़ा हुआ।
९. अविजित भूमिपालों को जीतने के लिए भरत महाराज ने सेनापति को विदा किया। इसके बिना भला और कौन जाए तथा कौन अविजितों पर विजय प्राप्त करे?।
१०. सेनापति से सेना में साहस का संचार होता है। वह सारी सेना का संरक्षक, प्रतिपालक और पूज्य होता है।
११. फिर भी यह सारी सेना और सेनापति अनित्य है। अंत:करण में भरतजी इन्हें अच्छा नहीं जानते हैं । निश्चय ही वे इन्हें छोड़कर मुनि बनेंगे तथा इसी भव में सीधे मुक्ति में जाएंगे।