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दोहा
१. उस सेनापतिरत्न को भरतजी ने कहा- तुम सिंधु नदी के पार जाकर सब देशों को जीतकर जल्दी यहीं लौटो ।
२. यह वचन सुनकर सेनापति हर्षित हुआ और हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बोला- आप स्वामी हैं, मैं आपका सेवक हूं। आपने जितना कार्य करने का आदेश दिया है, मैं उसे पूरा करूंगा ।
३, ४. ऐसा कहकर सेनापति वहां से निकला और अपने आवास स्थान पर आया। अपने विश्वस्त लोगों को बुलाकर कहा- तुम जल्दी से जल्दी जाओ और हस्तीरत्न को तथा चतुरंगिनी सेना को सजाकर मेरी आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो ।
५. ऐसा कहकर वह स्नानघर में आया । स्नान तथा तिलक छापे (बलिकर्म) कर मंगलाचार किया ।
ढाळ : ३०
१. अब सुषेण सेनापति हाथ में शस्त्र लेकर, शरीर पर उन्हें यथास्थान बांधकर तथा आभूषण पहनकर अत्यंत दर्शनीय बन गया।
२. अनेक सेवक और गणनायक दोनों हाथ जोड़कर बोलते हैं । वे सब इसके आज्ञाकारी हैं । यह भी सबका अधिकारी है ।
३. अनेक दंडनायक राजा ईश्वर इसके साथ हैं । सकोरंट फूलों की माला पहनकर तथा छत्र को भलीभांति धारण किए हुए हैं।