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भरत चरित
१६१ २. एकाग्र चित्त से ध्यान करते हुए तीन दिन पूरे हुए तब देवता का आसन चलित हुआ। उसने मन में विचार किया।
३. भरतक्षेत्र में छह खंड का अधिपति चक्रवर्ती पैदा हुआ है वह यहां आया है। इस समय उसने मुझे याद किया है।
४. मेरा तीनों ही कालों में जीत आचार है कि उपहार लेकर उनके सामने रखू। सिंधु देवी की तरह यहां सारा विस्तार जानना चाहिए।
५,६. ऐसा विचार कर प्रीतिदान देने के लिए रत्नों का मनोहारी मुकुट, हाथों के कड़े, भुजबंध आदि अनेकों आभरण लेकर वहां से निकला और उत्कृष्ट गति से
चला।
७. उसने जहां भरतजी बैठे हैं वहां आकर हाथ जोड़कर अंजली को मस्तक पर टिका आकाश में खड़े रह कर नमस्कार किया।
८,९. जय-विजय शब्दों से वर्धापित कर मुख से गुणगान किया। शीश झुकाकर प्रशंसा करता हुआ बोला- मैं वैताढ्य गिरि कुमार हूं। आप छह खंड के राजा हैं। मैं आपका किंकर हूं। मैं आपका वशवर्ती हूं।
१०. मैं इस दिशा में आपका सेवक बनकर रहूंगा। कोटपाल बन कर इस दिशा की रखवाली करूंगा। किसी को उपद्रव नहीं करने दूंगा।
११. मागध कुमार देव की तरह ही उसने अच्छी तरह विनय किया। जो उपहार लाया उसे भरतजी के पैरों में उपस्थित किया।