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प्रकाशकीय
भिक्षु वाङ्मय का तेरापंथ के लिए आगम तुल्य महत्त्व है। आचार्य भिक्षु स्वयं आगमों को ही अपने विचार-चिन्तन का उत्स मानते हैं, पर कालक्रम से भगवान महावीर की विचार-धारा पर जो एक प्रकार की धुंध छा गई थी, उसे दूर करने में आचार्य भिक्षु का बहुत बड़ा योगदान है। इसीलिए उनका वाङ्मय तेरापंथ के लिए आगम साहित्य से कम नहीं है। वह तेरापंथ के रथ की धूरी के समान है।
एक संत-दार्शनिक के रूप में आचार्य भिक्षु को जगत् के सामने लाने का श्रेय आचार्यश्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञ को है। यद्यपि चतुर्थ आचार्य जयाचार्य भी आचार्य भिक्षुमय ही थे। इसलिए उन्हें दूसरा भिक्षु भी कहा जा सकता है। पर उन्होंने आचार्य भिक्षु पर जो कुछ लिखा वह केवल राजस्थानी में था तथा उसका यथेष्ट प्रचार-प्रसार भी नहीं हो सका। आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ ने आचार्य भिक्षु को पुनर्जन्म दिया। आपके प्रयासों से दार्शनिक जगत् में आचार्य भिक्षु के प्रति एक नया श्रद्धा भाव जागा। आचार्य भिक्षु की वाणी केवल वाङ्मय नहीं है अपितु अनुभवों का अखूट खजाना है। पर राजस्थानी भाषा में होने के कारण वह वर्तमान लोगों के लिए अगम्य बनती जा रही है। आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने गुरुदेव के इंगित की आराधना करते हुए भिक्षु वाङ्मय का हिन्दी में अनुवादन करने का जो कार्य अपने हाथ में लिया वह अत्यंत सामयिक है। हम उनको शत-शत श्रद्धा नमन करते हैं।
राजस्थानी भाषा को राज्य मान्यता देने का एक प्रयास भी यदा-कदा होता रहता है। भिक्षु वाङ्मय इस प्रयास में एक मजबूत कड़ी बन सकता है। आचार्य भिक्षु को राजस्थानी के एक प्रबल संरक्षक के रूप में प्रस्थापित करने का भी यह एक महत्त्वपूर्ण अवसर है। हमें आशा ही नहीं विश्वास है कि संपूर्ण भिक्षु वाङ्मय का हिन्दी अनुवाद सामने आने से राजस्थानी भाषा का भी गौरव बढ़ेगा।