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अवयत्, अवयत। 5. वेण् (वादित्रे) = बांसुरी बजाना-वेणति, वेणते। वेणिष्यति, वेणिष्यते।
अवेणत्, अवेणत। 6. वेन् (गतिज्ञानचिन्तायाम्) = जाना, जानना, सोचना-वेनति, वेनते । वेनिष्यति,
वेनिष्यते। अवेनत् अवेनत। 7. शप् (आक्रोशे) = दोष देना-शपति, शपते।शप्स्यति, शप्स्यते। अशपत्, अशपत। 8. श्रि (श्रय) (सेवायाम्) = सेवा करना-श्रयति, श्रयते। श्रयिष्यति, श्रयिष्यते।
अश्रयत्, अश्रयत। 9. हे (हृञ्) (स्पर्धायां शब्दे च) = स्पर्धा करना, आह्वान करना, लाना-हयति,
ह्वयते। हास्यति, ह्वास्यते। अह्वयत्, अह्वयत। वाक्य.
स त्वामाह्वयति । स किमर्थं शपति। कृषीवलो बीजं वपति । श्रीकृष्णो वेणुं वेणति। अश्वो रथं वहति। ऊर्णासूत्रेण कवयो वस्त्रं वयन्ति। स वेनते।
अब प्रथम गण के उभयपद के धातुओं के साथ पाठकों का परिचय हो गया। सब मुख्य और उपयोगी धातुओं के साथ पाठक परिचित हो चुके हैं। यहां तक कि सब पाठों को दुबारा अच्छी प्रकार पढ़ें, क्योंकि यहां से दूसरा विषय प्रारम्भ होना है। जब तक पहला विषय कच्चा रहेगा, तब तक आगे बढ़ना कठिन होगा।
उपसर्ग धातुओं के पहले उपसर्ग लगते हैं और इन उपसर्गों के कारण एक धातु के अनेक अर्थ हो जाते हैं। देखिए
भू-सत्तायाम्। प्रथम गण 1. प्र (भू) = उत्कर्षयुक्त होना-प्रभवति। प्रभविष्यति।
_ *प्रभावत्। (प्र-भव) 2. परा (भू) = नाश होना, पराभव करना-पराभवति । पराभविष्यति । पराभवत् ।
(परा-भव) 3. अप (भू) = उपस्थित न होना-अपभवति। अपभविष्यति। अपाभवत्। 4. सं (भू) = होना, एकत्र जमा-संभवति। संभविष्यति। समभवत् (उभयपद
भूतकाल का पहले लगनेवाला 'अ' उपसर्ग के पश्चात लगता है। प्र+अभक्त प्राभवत्