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कोकिलः कथं गुञ्जति। शृणु। तत्र वृक्षे द्वौ कोकिलौ गुञ्जतः। अत्र द्वौ ब्राह्मणौ जपतः। त्वं किमर्थं जल्पसि।
स सर्वं गृहति। संस्कृत में परस्मैपद और आत्मनेपद नामक, दो पद होते हैं। इनका विशेष विचार आगे किया जाएगा। यहाँ तक धातु परस्मैपद के ही दिए गये हैं।
परस्मैपद-गच्छति, वदति, करोति, भवति। आत्मनेपद-एधते, ईक्षते, वदते, भाषते।
आत्मनेपद के धातुओं के लिए अन्त में 'ते' प्रत्यय लगता है और परस्मैपद के अन्त में 'ति' लगता है। इस समय आप इतना ही फर्क समझ लीजिए।
वर्तमान काल परस्मैपद के लिए प्रत्यय
एकवचन द्विवचन बहुवचन प्रथम पुरुष मध्यम पुरुष ... उत्तम पुरुष
मः ये प्रत्यय किस प्रकार लगते हैं, इसका ज्ञान निम्न रूप देखने से हो सकेगा। गच्छ-ति गच्छ-तः
गच्छ-न्ति गच्छ-सि गच्छ-थः
गच्छ-थ गच्छा-मि गच्छा-वः
गच्छा-मः
न्ति
ति
थः
वः
वद-ति वद-तः
वद-न्ति वद-सि वद-थः
वद-थ वदा-मि वदा-वः
वदा-मः उत्तम पुरुष के प्रत्ययों से पहले 'अ' के स्थान पर 'आ' होता है। जैसे-गच्छामि, वदामि, जल्पामि, जपामि, तपामि इत्यादि।
उक्त प्रत्यय लगाकर सब धातुओं के रूप बनाइये और लिखिए-रूप लिखने का ढंग नीचे दिया जा रहा है
जीवन - (प्राण धारणे) = जीता रहना, जीना