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अध्यात्म योग (७)
आत्मा पर मूर्च्छा का आवरण होता है तब अहंकार और ममकार जागता है। मूर्च्छा का आवरण हटने के बाद अमुक काम करने वाला मैं हूं, अमुक वस्तु मेरी है-इस प्रकार का भाव चेतना का स्वभाव नहीं बनता। क्योंकि उपाधि का मूल कारण मूर्च्छा है। उपाधि के अभाव में मैं और मेरेपन का भाव पैदा नहीं होता । 'अयमात्मा' – यह आत्मा है, इस वाक्य में केवल अस्तित्व का बोध होता है। इसके साथ मूर्च्छा का योग होते ही 'अहमात्मा' मैं आत्मा हूं, यह अहंकार जन्म लेता है।
मूर्च्छा यदि होती नहीं, तो मैं मेरा भाव। चेतन के चैतन्य का, बनता नहीं स्वभाव || अध्यात्म पदावली ७
ADA
६ फरवरी
२००६
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