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शरीरप्रेक्षा ( ४ )
दीर्घदर्शी साधक मनुष्य के उन भावों को जानता है, जो अधोगति के हेतु बनते हैं; उन भावों को जानता है, जो ऊर्ध्वगति के हेतु बनते हैं; उन भावों को जानता है, जो तिर्यग् (मध्य) गति के हेतु बनते हैं।
१० दिसम्बर
२००६
३७०
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