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इन्द्रिय चेतना : विषय और विकार (१७) ___ जो भाव में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त होकर दूसरे की वस्तुएं चुरा लेता है।
वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और भावपरिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। भावे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेई तुहिँ। अतुढिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं।। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से।।
उत्तरज्झयणाणि ३२.६४,६५
२ नवम्बर
२००६
प्र... PRADESCRIGADEDGQ4-३३२---.
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