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कायोत्सर्ग (७)
जो साधक लम्बे समय तक ऊर्ध्व (खड़े-खड़े ) कायोत्सर्ग करता है, उस अवस्था में उसके अंग-प्रत्यंग टूटने लग जाते हैं।
कर्म का बंधन बहुत दृढ़ होता है। उसे साधारण तप से नहीं तोड़ा जा सकता । किन्तु कायोत्सर्ग के द्वारा उस बंधन को तोड़ा जा सकता है।
जैसे करवत काठ को चीर डालती है वैसे ही सुविहित साधु कायोत्सर्ग के द्वारा कर्म - काष्ठ को चीर डालता है।
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काउस्सग्गे जह सुट्ठियस्स भज्जंति अंगमंगाइ । इय भिंदंति सुविहिया अट्ठविहं कम्मसंघायं ।। जह करगओ निकिंतइ दारू इंतो पुणोवि वच्चंतो । इअ कंतंति सुविहिया काउस्सग्गेण कम्माई || आवश्यक भाष्य गाथा २३७
७ अक्टूबर २००६
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