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________________ संवरयोग : ध्यान-योग मन, वाणी और कर्म का स्पन्दन होता है, तब हम बाह्य जगत् के सम्पर्क में रहते हैं और जब ये निष्पन्द हो जाते हैं, तब हम अन्तर्जगत् या अपने स्वभाव में चले जाते हैं। इसी प्रकार संताप, आकर्षण, आकांक्षा और मिथ्या दृष्टिकोण हमें बाह्य की ओर उन्मुख करते हैं। सम्यक् दृष्टिकोण, सहज तृप्ति, सहज शांति और सहज आनंद हमें आत्मोन्मुखता की ओर ले जाते हैं। आत्म-विमुखता ही आश्रव है और आत्मोन्मुखता ही संवर है। साधना का अर्थ ही है - आत्म-विमुखता से हटकर आत्मोन्मुख होना । यम ( महाव्रत ), नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि उसी की साधन-सामग्री है। ध्यान और समाधि संवर से भिन्न नहीं है। इसीलिए जैन योग में संवर ध्यान योग का सर्वोपरि महत्त्व है । GD C १ अप्रैल २००६ ११४ GGG
SR No.032412
Book TitleJain Yogki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Vishrutvibhashreeji
PublisherJain Vishva Bharati Prakashan
Publication Year2007
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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