SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख कवि देवीदास की एक पाण्डुलिपि अद्यावधि अप्रकाशित ही है और वह है आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार का बुन्देली-हिन्दी में पद्यानुवाद। देवीदास-विलास के प्रकाशन के बाद उसकी जीरोक्स प्रति जयपुर से उपलब्ध होने से वह छपने से रह गई है। अब देखें उस पाण्डुलिपि का भाग्य कब जागता है और कब एवं कहाँ से वह प्रकाशित हो पाती है ? देवीदास-विलास के प्रकाशन के पूर्व भी उक्त वर्णी-संस्थान ने एक अप्रकाशित पाण्डुलिपि का प्रकाशन किया था, जिसका नाम है-आचार्य भद्रबाहु, चाणक्य-चन्द्रगुप्त-कथा एवं राजा कल्कि वर्णन। यह अपभ्रंश की ऐतिहासिक रचना महाकवि रइधू कृत है और उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें यापनीय-संघ की उत्पत्ति एवं कान्तार-चर्या की कथा भी प्रासंगिक रूप में मिलती है, जिसके कारण यह रचना बड़ी रोचक एवं चर्चित हुई। इसका सम्पादन पूज्य पं.फूलचन्द्र जी शास्त्री की प्रेरणा से डॉ.राजाराम जैन ने किया था, जिसका प्रकाशन वर्णी संस्थान से सन् १९८२ में हुआ था। भौगोलिक दृष्टि से पाण्डुलिपियों का महत्व __ इस शताब्दी के प्रारम्भ से ही देश-विदेश के प्राच्यविद्याविदों ने प्राचीन भारतीय साहित्य के आधार पर प्राच्य भारतीय भूगोल का भी अध्ययन किया है। उस दृष्टि से वैदिक एवं बौद्ध-साहित्य का तो मूल्यांकन किया गया किन्तु जैन-साहित्य में वर्णित भूगोल अद्यावधि उपेक्षित ही बना रहा। जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है-खोजी विद्वानों ने कालिदास कृत मेघदूत के विरही-यक्ष के दूत के मेघ के मार्ग तक का पता लगा लिया, जब कि द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल में श्रमण-संस्कृति एवं साधु-संघ की सुरक्षा की दृष्टि से अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाह के दक्षिण-भारत की इतनी लम्बी यात्रा के स्थल-मार्ग का पता आज तक लगाने का प्रयत्न नहीं किया गया। इस आवश्यकता की ओर किसी का ध्यान तक नहीं गया। आज तक इस तथ्य का पता नहीं चला कि उनके यात्रा का मार्ग क्या था और कहाँ-कहाँ उन्होंने अपने क्या-क्या स्मृति चिन्ह छोड़े ? ___ महाकवि कालिदास से लगभग ४-५ सौ वर्ष पूर्व हुए आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में उपलब्ध भूगोल की भी उपेक्षा कर दी गई, जब कि उन्होंने राष्ट्रिय भावात्मक एकता एवं अखण्डता National Unity and Emotional Integration) के प्रतीक अपने निर्वाण-काण्ड-स्तोत्र के माध्यम से पर्वतराज हिमालय के गर्वोन्नत भव्यमाल के समान अष्टापद-कैलाश पर्वत से. लेकर जम्मू एवं काश्मीर तक तथा गुजरात के गिरिनार, दक्षिण के कुन्थलगिरि, पूर्वी-भारत के सम्मेदगिरि, दक्षिण-पूर्व की कोटि-शिला के चतुष्कोण के बीचों-बीच लगभग ४० प्रधान नगरों, तीर्थों, पर्वतों एवं नदियों के उल्लेख कर समकालीन भारतीय भूगोल पर अच्छा प्रकाश डाला है। इस प्रसंग में यह भी ध्यातव्य है कि सन् १६६२ में जब चीन ने भारत पर पहला आक्रमण किया था और हिमालय के कुछ भूभाग को उसने अपना चीनी-क्षेत्र घोषित किया था, तब अत्यधिक चिन्तित होकर तत्कालीन प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने बहुत ही उच्च-स्वर में महाकवि कालिदास (५वीं सदी) के कुमारसम्भव-महाकाव्य (१/१) की
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy