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प्रकाशकीय पाण्डुलिपियाँ (Manuscripts) किसी भी समाज की समुन्नत प्रतिभा एवं संस्कृति की परिचायिका मानी जाती हैं। जिस प्रकार पुरातात्विक सामग्री (Archaeological Remains) एवं शिलालेख (Inscriptions) किसी भी देश के इतिहास के निर्माण के लिये प्रामाणिक तथ्य प्रस्तुत करते हैं, उसी प्रकार पाण्डुलिपियाँ भी भूत-लक्षी-प्रभाव से समकालीन इतिहास एवं संस्कृति को चित्रित करने हेतु बहुआयामी सामग्री का वरदान देती हैं।
प्राच्य जैन-विद्या ने अपनी श्रेष्ठता, मौलिकता तथा गुणवत्ता के कारण पिछली लगभग 3 सदियों से विश्व के भारतीय प्राच्य-विद्या के प्रेमी विद्वानों को आकर्षित किया है। १६वी-२०वी सदी में इस दिशा में जो विविध पक्षीय शोध-कार्य हुए हैं, वे तो निश्चय ही आश्चर्यजनक हैं। हम जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, इटली, आदि के प्राच्य भारतीय विद्याविदों के सदा आभारी रहेंगे, जिन्होंने जैनधर्म की प्राचीनता एवं मौलिकता को सिद्ध कर उसकी स्वतंत्र सत्ता पर प्रकाश डालकर उसकी गौरवपूर्ण परम्पराओं को मुखर किया। यही नहीं, उन्होंने प्राचीन जैन पाण्डुलिपियों का गहन अध्ययन कर उनका सम्पादन, अनुवाद एवं समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर भारतीय प्राच्य-विद्या के शोधार्थियों का मार्गदर्शन भी किया है।
हम प्रो.डॉ. राजाराम जैन के विशेष आभारी हैं, जिन्होंने प्रारम्भिक लेखनोपकरणसामग्रियों के उद्भव एवं विकास पर रोचक सामग्री प्रस्तुत करते हुए प्राचीन जैन पाण्डुलिपियों एवं शिलालेखों का सरस एवं रोचक भाषा-शैली में उनके महत्व पर अपने शोधपरक दो व्याख्यानों के माध्यम से प्रकाश डालकर नई पीढ़ी को इस क्षेत्र में शोधकार्य करने की उत्साहवर्धक प्रेरणा दी है।
___ आचार्य कुन्दकुन्द-पुरस्कार सहित अखिल भारतीय स्तर के १३ पुरस्कारों से पुरस्कृत, राष्ट्रपति सहस्राब्दी सम्मान-पुरस्कार से सम्मानित तथा लगभग ३४ ग्रंथों के लेखक-सम्पादक प्रो. जैन सन् १६५६ से ही पाण्डुलिपियों के उद्धार तथा सम्पादन-कार्यों में व्यस्त रहे हैं। इस क्षेत्र में उनका गम्भीर अध्ययन एवं अनुभव है। अतः जब धवल, जयधवल, महाधवल जैसी आगमिक-टीका सम्बन्धी पाण्डुलिपियों के अनुवादक सम्पादक पं. फूलचन्द जी शास्त्री के शताब्दि-समारोह को सार्थक बनाने हेतु उनकी नियमित वार्षिक स्मारक व्याख्यान-माला का प्रसंग आया तो समारोह-समिति ने उनके (श्रद्धेय पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री के) ही परम भक्त एवं विश्वस्त कर्मठ शिष्य तथा सन् १९७७ से श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान के विभिन्न पदों पर कार्य करते आ रहे प्रो. डॉ. राजाराम जी जैन को पाण्डुलिपियों से संबंधित ही दो व्याख्यान प्रस्तुत करने हेतु आमंत्रित किया। व्याख्यान के विषय की गम्भीरता को देखते हुए यद्यपि उन्हें समय बहुत कम दिया गया, फिर भी उन्होंने समिति के निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार किया तथा पाण्डुलिपियों से संबंधित प्रायः सभी पक्षों पर उन्होंने सरस एवं रोचक शैली में