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________________ ३८ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख प्रधान ४ सम्राटों में से उसे अग्रगण्य माना था ५५, उसने धवला टीकाकार वीरसेन स्वामी के पट्टशिष्य आचार्य जिनसेन को अपना गुरु माना था। उसने जिनवाणी के उद्धार तथा लेखन के लिए वाटनगर में एक जैन-विद्यापीठ की स्थापना की थी, जिसके अधिष्ठाता स्वयं आचार्य जिनसेन थे ५६ | जिनसेन ने स्वयं तो उच्च श्रेणी के ग्रन्थ लिखे ही, साथ ही वीरसेन स्वामी के स्वर्गारोहण के बाद उनके अधूरे टीका-कार्यों को भी पूर्ण किया था। जिनसेन के पट्टशिष्य आचार्य गुणभद्र ने भी जिनसेन के स्वर्गवास के बाद उनके अधूरे महापुराण ५७ को उन्हीं की भाषा-शैली में पूर्णकर उसके पूरक के रूप में उत्तरपुराण ५८ की रचना की थी। प्रशस्तियों के अनुसार इन आचार्यों के अतिरिक्त भी उक्त विद्यापीठ में बैठकर आयुर्वेदशास्त्रज्ञ आचार्य उग्रादित्य, गणितज्ञ महावीराचार्य एवं वैयाकरण शाकटायन-पाल्यकीर्ति प्रभृति आचार्यों ने भी गम्भीर साहित्य-साधना की थी। उक्त सम्राट अमोघवर्ष ने कुल मिलाकर लगभग ६३ वर्षों तक राज्य किया और अन्त में अपने पिता के समान ही राज्यपाट त्याग कर वह उक्त आचार्यों के सान्निध्य में रहकर स्वयं भी उच्चकोटि का कवि-लेखक बन गया था और उसने स्वयं भी "कविराजमार्ग', (लक्षण-ग्रन्थ) एवं "प्रश्नोत्तररत्नमालिका" की रचना की, जो जैन-साहित्य की विशिष्ट कृतियों के रूप में प्रसिद्ध हुई। ____ कविराजमार्ग यद्यपि लक्षण-शास्त्र का ग्रन्थ है किन्तु उसके प्रारम्भ में उसका मातृभूमि-प्रेम देखिये, कितना मार्मिक बन पड़ा है। उसके मूल कन्नड़ पद्यों का अंग्रेजी ५५. अतीत के पृष्ठों से (लेखक डॉ.राजाराम जैन) पृ. ४, ६. ५६. आचार्य जिनसेन के साधना-पूर्ण विराट-व्यक्तित्व को सम्राट अमोघवर्ष कितना आदर देता था, उसके विषय में आचार्य गुणभद्र ने अपनी एक प्रशस्ति में लिखा है यस्य प्रांशु नखांशु जाल विसरद्धारान्तराविर्भवत् पादाम्भोजरजः पिशङ्गमुकुट प्रत्यग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्तास्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलम् स श्रीमान्जिनसेन पूज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ।। अर्थात् श्री जिनसेन स्वामी के दैदीप्यमान नखों के किरण-समूह उज्ज्वल-धारा के समान कान्ति फैलाते थे और उनके बीच उनके चरण-युगल कमल-पुष्प जैसे प्रतीत होते थे। उनके उन चरण-कमलों की रज से जब राजा अमोघवर्ष के राजमुकुट में लगे हुए नवीन रत्नों की कान्ति पीली पड़ जाती थी, तब वह अपने आपको ऐसा स्मरण करता था कि मैं आज अत्यंत पवित्र हो गया हूँ, ऐसे पूजनीय भगवान् जिनसेनाचार्य की चरण-रज विश्व के लिये मंगलकारी सिद्ध हो। (उत्तरपुराण अन्त्य प्रशस्ति पद्य सं. ६) ५७.-५८.महापुराण (अपरनाम त्रिषष्ठिशलाकामहापुरुषचरित)-दो खण्डों में विभक्त है-आदिपुराण एवं उत्तरपुराण | आदिपुराण में भ. ऋषभदेव का विस्तृत जीवन-चरित वर्णित है और उत्तरपुराण में अवशिष्ट २३ तीर्थंकरों तथा अन्य शलाका-महापुरुषों का जीवन-चरित वर्णित है। __ आदिपुराण में कुल १२ सहस्र श्लोक तथा ४७ पर्व (अथवा अध्याय) हैं। इनमें से ४२ पर्व सम्पूर्ण तथा ४३वें पर्व के ३ श्लोक जिनसेन कृत तथा बाकी के पर्वो के १६२० श्लोक उनके शिष्य आचार्य गुणभद्र कृत हैं।
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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