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________________ ३४ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख हीरा - माणिक्यादि की १५०० मूर्तियों का निर्माण कराया था । ३० वर्षों तक कठोर तपस्या करने वाली विदुषी साधिका पामव्वे (६७१ ई.) राजेन्द्र कोंगालव की विदुषी श्राविका माता पोचव्वरसी (१०५० ई.), कदम्ब - शासक कीर्तिदेव की ज्येष्ठा रानी मालल देवी (१०७७ ई.) शान्तर-राजवंश की अनेक मन्दिरों, वसदियों, सरोवरों, स्नानगृहों, दानशालाओं एवं शिक्षालयों की निर्मात्री चट्टलदेवी (११वीं सदी), वादीभसिंह, अजितसेन, पण्डितदेव की शिष्या राजकुमारी पम्पादेवी, गंगराज रानी लक्ष्मीयाम्बि के सेनापति बोप्प की धर्मपत्नी सुश्राविका जक्कणव्वे, जैन सेनापति पुण्णितमय्य की धर्मपत्नी जक्कियव्वे, होयसलनरेश विष्णुवर्धन की धर्मपत्नी तथा श्रवणबेलगोला में सवत्तिगन्धवारण-वसदि की निर्मात्री सुश्राविका शान्तला देवी (११३१ ई.), चन्द्रमौलि मन्त्रिवर की धर्मपत्नी आचलदेवी आदि ऐसी सन्नारियाँ हैं, जिनके अनेकविध लोककल्याणकारी कार्यों के लिये विभिन्न कन्नड़ एवं संस्कृत शिलालेखों में सादर स्मरण किया गया है। होयसल वंश के संस्थापक सुदत्त-वर्धमान दक्षिण भारत के सन् ११७६ के एक शिलालेख के अनुसार जिस प्रकार गंग-वंश की स्थापना दडिग एवं माधव की कठिन परीक्षा लेकर उन्हें राज्यासीन कराया गया था, उसी प्रकार श्रवणबेलगोला के शिलालेख सं. ५६ के अनुसार सुदत्त वर्धमान ने भी अपने शिष्य सल की कठिन परीक्षा लेकर उसे राज्याभिषिक्त कराया था । प्राणिहन्ता विकराल सिंह को मार देने के कारण इसी सल का नाम पोयसल (मारसल हुआ, जो आगे चलकर होयसल के नाम से प्रसिद्ध हुआ ५० । जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, कर्नाटक के मध्यकालीन जैन-शिलालेखों से स्पष्ट विदित होता है कि इस राजवंश ने प्रजाजनों के कल्याण के लिये जहाँ अनेक मन्दिरों, कूपों, तड़ागों एवं बावड़ियों के निर्माण कराये, अनेक जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार एवं नव-निर्माण में सहायताएँ की, जैन मुनियों, आचार्यों को सम्मान दिया, वहीं जैन साहित्य एवं साहित्यकारों को आश्रयदान भी दिया। मूलसंघी देशीगण कुन्दकुन्दान्वयी देवेन्द्र सिद्धान्ति देव, चतुर्मुखदेव के शिष्य गोपनन्दि पण्डितदेव, राजा बल्लाल (प्रथम) के गुरु चारुकीर्ति मुनि, (सन् ११००-११०६), श्रुतकीर्तिदेव, रानी शान्तला देवी, गुरु श्रीपाल त्रैविद्यदेव, सम्यक्त्वचूड़ामणि की उपाधि से विभूषित तथा केल्लंगेरे, बंकापुर तथा कोप्पण को जैन-केन्द्रों के रूप में विकसित करने वाले सेनापति हुल्ल, मूलसंघ देशीगण के बालचन्द्र मुनि, नरसिंहदेव के धर्मगुरु - बलात्कारगण के माघनन्दि सिद्धान्तदेव, कुमुदेन्दु योगी, जैसी विभूतियाँ इसी समय में हुई । अभिनवसार- चतुष्टय (सिद्धान्तसार, श्रावकाचारसार, पदार्थसार तथा शास्त्रसार) जैसे महनीय ग्रन्थों की रचना भी इसी काल में की गई। ५०. Medieval Jainism P. 63-73.
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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