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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
- महानिमित्त के ज्ञानी आचार्य धरसेन ने बदलते परिवेश में कण्ठ- परम्परा से प्राप्त द्वादशांगवाणी की अपने पास अवशिष्ट ज्ञान - राशि की सुरक्षा की दृष्टि से उसे लिपिबद्ध करना अथवा कराना अनिवार्य समझा ।
आचार्य गुणधर ने लेखनोपकरण- सामग्री की उपलब्धि में कठिनाइयाँ तथा अघिक रूप में लिखित सामग्री की सुरक्षा सम्बन्धी कठिनाई को ध्यान में रखते हुए सोलह-सहस्र-मध्यम-पदों वाले कसायपाहुड के विस्तृत वर्ण्य विषय को संक्षिप्त कर २३३ गाथासूत्रों में पूर्वागत श्रुत- परम्परा को स्वयं निबद्ध किया और अपने दो आचार्य-शिष्यों-नागहस्ति तथा आर्यमक्षु को उनका विशद् ज्ञान कराया ।
किन्तु आचार्य धरसेन ने किन्हीं विशिष्ट कारणों से अपनी ज्ञान- राशि को स्वयं निबद्ध न कर आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि को उसका अध्ययन कराया। तत्पश्चात् उन दोनों शिष्यों में से पुष्पदन्त ने ( १७७ सूत्र वाले) सत्प्ररूपणा-साहित्य तथा भूतबलि ने शेष द्रव्य-प्रमाणादि जैसे अवशिष्ट अंश का सूत्र - शैली में ग्रथन किया, जो षट्खण्डागम के नाम से प्रसिद्ध हुआ २१ । यह प्रथम सदी ई.पू. के अन्तिम चरण के आसपास की घटना है ।
यह कहना कठिन है कि आचार्य गुणधर एवं पुष्पदन्त तथा भूतबलि ने उक्त साहित्य-लेखन के लिए किस-किस प्रकार के लेखनोपकरणों का उपयोग किया होगा ? मूल रूप से वे भूर्जपत्रों पर लिखे गए थे या ताड़पत्रों पर ? उन्हीं के समय के आसपास आचार्य कुन्दकुन्द भी हुए । उनकी हस्तलेख सम्बन्धी मूल- पाण्डुलिपियों की कोई भी जानकारी नहीं मिलती।
तत्पश्चात् लगभग दो-तीन सौ वर्षों के बाद आचार्य समन्तभद्र, आचार्य गृद्धपिच्छ, बट्टकेर, शिवार्य एवं स्वामिकार्तिकेय आदि हुए। उन्होंने भी अपनी कृतियों को किस प्रकार की लेखन सामग्री पर लिखा होगा, आज उसके साक्ष्य हमारे सम्मुख नहीं । किन्तु जैनजगत् उन महामहिम आचार्यों, भट्टारकों तथा श्रावकों एवं श्राविकाओं का निरन्तर ऋणी रहेगा, जिन्होंने किन्हीं साधनों से उनकी प्रतिलिपियाँ एवं उनकी भी प्रतिलिपियाँ स्वयं कर अथवा दूसरों से कराकर उन्हें समकालीन जैन-केन्द्रों में सुरक्षित रखा। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, ये परवर्ती पाण्डुलिपियाँ प्रायः कन्नडलिपि में ताड़पत्रों पर हैं, जो १२वीं - १३वीं सदी के आसपास की बतलाई जाती हैं।
पाण्डुलिपि का प्रारम्भिक रूप - शिलालेख एवं उनका महत्व
पाण्डुलिपि के उद्भव की प्रथम कड़ी के रूप में मान्य शिलालेखों की, किसी भी देश के इतिहास के निर्माण में प्रमुख भूमिका होती है। पूर्व में इसका संकेत दिया ही जा चुका है। उसमें अंकित सन्दर्भों तथा तथ्यों को सर्वाधिक प्रामाणिक एवं महत्वपूर्ण माना गया है।
२०. - २१. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा भाग १ पृ. २८ तथा षट्खण्डागम धवला टीका १/१/१ पृ. ६१